गुरुवार, 2 नवंबर 2017











   सरदार ,,,यानी मुखिया 


 इधर कुछ दिन पूर्व ही , जब न्यूज़ १८ पर  , कांग्रेस के प्रवक्ता ,, आलोक शर्मा ने    सीना ठोक कर कह दिया की सरदार पटेल से इंदिरागांधी बड़ी नेता थीं , तो हार्दिक दुःख हुआ !   दुःख इसलिए हुआ की आधुनिक कांग्रेस के प्रवक्ता सरदार को जानते ही नहीं थे ! वे ही क्यों , बहुत से लोग सरदार से इसलिए अनभिज्ञ हैं की उनकी जीवनी किसी स्कुल में ठीक से पढ़ाई ही नहीं गयी ,,,,और ना उन पर किसी फिल्मकार ने फिल्म बनाई ,,!  जो  लोग  भारत को गावं की मिटटी के जरिये पहचानते हैं ,,,वे ही गांधी और सरदार को समझ सकते हैं ,,,और जो गावं को राजाओं , नबाबों , और अभिजात्यवर्ग के लोगों  के रूप में  पहचानते हैं वे ही नेहरू को जान सकते हैं !

    मुश्किल यह है की , सरदार को , आज़ादी के सन्दर्भ में सिर्फ एक ऐसे लौह पुरुष के रूप में सीमित कर दिया गया , जिसने देश  की  ५१२ रियासतों को एक राष्ट्र के रूप में नया स्वरूप दे दिया ,   जो की  रजवाड़ों के स्वार्थी संस्कारों के बीच ,,,एक असंभव कार्य था !  क्या पटेल का व्यक्तित्व बस एक लौहपुरुष का ही था ,,,,??  तो  फिर  वे सरदार क्यों  कहलाये  ,,?? क्या यह सरदार का सम्बोधन उन्हें   रियासतों के  विलय के दुष्कर  कार्य करने के लिए नवाज़ा गया था ,या किसी और कारण ,?  वे क्यों सरदार कहलाये ,,,इसका   उत्तर    आज की पीढ़ी  नहीं जानती  .??

   सरदार पटेल वस्तुतः स्वतंत्रता संग्राम में ,  गांधी के साथ चलने वाले रथ के दूसरे पहिये थे !  या  यु  कहें  की   गांधी और सरदार एक ही सिक्के के दो पहलु थे ! वे गांधी के अनुयायी कम , मित्र ज्यादा थे ! वे  संघर्षों  में  पले _  बढे ब्यक्ति थे !  उन्हें सुविधाओं की चम्मच जन्म से ही मुंह में नहीं मिली थी , और ना ही कोई व्यक्ति उनका गॉड फादर था ! दूसरे शब्दों में यदि एक कड़वा सत्य कहें की , गांधी को और सरदार को " कांग्रेस ' की जरुरत नहीं थी ,,,बल्कि कांग्रेस को इन दोनों व्यक्तित्वों की जरुरत थी ,,, स्वतंत्रता के आंदोलन के लिए ......, तो गलत नहीं होगा  !

  संक्षेप में यदि सरदार की जीवनी पढ़ें , तो यह पता चलता है की वे सं १८७५ में जन्मे , और नेहरू से १४ साल बड़े थे ! वे बहुत ही सामान्य  परिवार  से थे , और स्वभाव से महात्वाकांक्षी नहीं थे ! उन्होंने अपनी वकालत की प्रारम्भिक पढ़ाई भी , अन्य सीनियर वकीलों से किताबें  मांग कर पढ़ीं ,,, क्यूंकि उनके पास किताबें खरीदने  के  पैसे  नहीं थे ! उन्होंने युवावस्था में  ,    प्लेग से पीड़ित अपने मित्र की सेवा की  और  उसका  इलाज़ किया और फलस्वरूप वे भी इस भयानक रोग के शिकार हो गए !  अपने रोग का इलाज़ , उन्होंने परिवार से दूर रह कर,  एकांत में , एक मंदिर में रह कर किया और स्वस्थ हुए !  वकालत  की  पढ़ाई  के बाद उन्होंने गोधरा में रह कर प्रेक्टिस शुरू की ,,,और अपने पैतृक घर , और परिवार से कोई  आर्थिक  मदद नहीं ली !  सं १९०९ में , उनकी पत्नी कैंसर के  रोग  से  ग्रसित  हुई , और मुंबई के एक अस्पताल में मर गयीं ,,,! जब उनकी पत्नी की खबर उन्हें दी गयी तो वे अदालत में एक ज़िरह कर रहे थे ,,,उन्होंने कागज़ पर लिखी अपनी पत्नी की मृत्यु की सूचना को चुपचाप जेब में रख लिया और जिरह पूरी होने के बाद ही अदालत से बाहर आये !
   पत्नी की   मृत्यु  के  बाद  उन्होंने पुनः विवाह नहीं किया ! एक लड़की और एक लड़के , दो बच्चों की परवरिश उन्होंने खुद अपने ही आर्थिक  सीमाओं में आजीवन   की  !

     ३६ वर्ष की उम्र में  सं १९११ में  , वे बैरस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए !जहाँ उन्होंने ३६ माह का कोर्स सिर्फ ३० माह में ही पूरा कर लिया !  वापिस आकर   वे एक सफल बैरिस्टर बने  और अपनी प्रेक्टिस शुरू कर दी ! सं १९१७ में उनकी पहली मुलाक़ात गांधी से हुई ,,,और वे उनकी  स्वराज की धारणा से वे प्रभावित हुए !  इस कार्यक्रम के अंग बन कर  , वे गुजरात  सभा  के सचिव बने जो बाद में कांग्रेस की .. शाखा ' गुजरात  कांग्रेस  के  रूप  में परिवर्तित हो गयी !

    सरदार ने गुजरात में अपने ही तत्वाधान में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया ! उन्होंने सर्वप्रथम अंगरेजी कानून ,',बैथ ' .. का विरोध किया  ! जिसके अनुसार   किसान  और , मज़दूर , अंग्रेजों का सामान  मुफ्त  ढोने के लिए कानूनन बाध्य थे ! अस्वीकार करने पर जेल का प्रावधान था ! इसके साथ साथ ही उन्होंने समाज सेवा का बीड़ा उठाया , जिसमें प्लेग से बचाव , और कुपोषण से मुक्ति हेतु लोगों को शिक्षित करने का कार्य था !   इसी सिलसिले में उन्होंने गुजरात के खेड़ा जिले से , अंग्रेजों को टेक्स दिए जाने का विरोध शुरू किया ,,,और कुछ ही दिनों में किसान टेक्स देना बंद कर दिए ! यह वह समय था जब गांधी जी  चम्पारण  में  निलहे गोरों के विरोध में एक अलग आंदोलन चला रहे थे !  सरदार वल्लभ भाई का जुड़ाव , एक से स्वभाव   के कारण , गांधी से जुड़ता गया ,,और वे गांधी के ना सिर्फ समर्थक बल्कि , एक महत्वपूर्ण सिपाही बन गए ! सरदार ने पुरे जिले के सभी गावों में भ्रमण करके किसानो को जाग्रत किया की वे टेक्स ना दें , ! सरकार ने पुलिस भेजी , किसानो के जानवर और संपत्ति को सीज़ करने के लिए , किन्तु सरदार के इशारे पर किसानो ने अपने जानवर और मूल्यवान संपत्ति को छिपा लिया ,,!! सरकार ने हजारों आंदोलन  कर्ताओं  को पकड़ा  , लेकिन पटेल  पकड़  में नहीं आ  पाए ! धीरे धीरे यह आंदोलन निकट के अन्य प्रांतों में भी फ़ैल गया ,,,लोग पटेल को जानने लगे। .. वे  लोगों के नायक बन गए ,,!  कुछ दिन बाद सरकार झुकी , उसने टेक्स में रियायत की  और कहीं कहीं  तो  एक  साल  के लिए वापिस ले लिया !

     पटेल ने गुजरात  को पूरी तरह सम्हाल लिया ! असहयोग आंदोलन  के दौरान  , उन्होंने  कांग्रेस के  तीन लाख सदस्य बनाये , जिनसे १.५ लाख की रकम भी आंदोलन चलाने के लिए एकत्रित हुई ! पटेल ने अंगरेजी वस्त्र त्याग दिए , और बच्चों सहित खादी पहनने लगे ! उन्होंने छुआछूत के विरुद्ध , और शराब  बंदी के  लिए  ,सफल  आंदोलन संचालित किये ! वे लोगों द्वारा ' अहमदाबाद '' शहर के नगरपालिका के अध्यक्ष भी बनाये गए और उस जमाने में उन्होंने शहर की स्वच्छता के लिए   महत्त्व   पूर्ण कार्य किया ! जब १९२७  में उस क्षेत्र में भीषण बाढ़ आयी , सैकड़ों लोग बेघर हुए , तो उन्होंने राहत केम्प चलाये  , और  , निशुक्ल वस्त्रों ,दवा, भोजन की व्यवस्था करवाई !  उनके एक आह्वान पर सैकड़ों कार्यकर्ता खड़े हो जाते थे !,,,और वे उनके नायक कहलाते थे ! विभिन्न आंदोलनों के मुखिया होने के नाते   गुजरात  के लोगों ने,, उन्हें अपना " सरदार " माना !और वे उनके बीच प्यार से,,,, " सरदार " ,,,,कहलाने लगे !


    १९२३  में जब गांधी जेल में थे , तो पटेल को नागपुर कांग्रेस का न्रेतत्व करने को कहा गया ! उन दिनों " तिरंगा " फहराना मना था ,,,! नागपुर में तिरंगा फहराने   के लिए उन्होंने हज़ारों कार्यकर्ताओं को देश के कोनों से बुला लिया ...पुलिस समझ ही नहीं पाई  और झंडा फहराया गया ! बढ़ते  हुए प्रभाव को देख कर अंग्रेज सरकार झुकी , और सरदार के कहने पर बहुत से उन लोगों को  जो  झंडारोहण  के लिए जेल में ठूंस दिए गए   थे ,,,रिहा किया गया ! दांडी यात्रा के समय , पटेल से डरे अंग्रेजों ने उन्हें  पहले  ही  गिरफ्तार  कर लिया !  और बंद कमरे में उन पर एक गंभीर मुकदमा चलाने की कोशिश , बिना गवाहों के शुरू हुई !,,,लेकिन जनता के दबाव के सामने सरकार को पटेल को छोड़ना पड़ा !  दांडी यात्रा के बाद जब गांधी भी गिरफ्तार हो गए ,,,तो  सरदार को कांग्रेस का   अंतरिम  अध्यक्ष बनाया गया ! बाद में वे १९३१ में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए !

     दूसरी गोल मेज कांफ्रेंस फेल होने पर गांधी और सरदार दोनों नेताओं को एक साथ गिरफ्तार कर लिया गया ,, और उन्हें यरवदा जेल में साथ साथ रखा गया ! वहां सरदार,    गांधीजी के एक विश्वश्त सहयोगी बने , और स्वराज से ले कर स्वतंत्रता प्राप्ति के सभी मुद्दों पर परामर्श हुआ ! उन्होंने वहां हिन्दू मान्यताओं पर भी चर्चाएं की , हंसी मज़ाक भी किया , और जब गांधी ने आमरण  अनशन शुरू किया तो पटेल ने ही उनकी देखभाल की ! !सरदार से  गांधी की निकटता की रिपोर्ट मिलने पर , अंग्रेजों ने उन्हें अलग नासिक जेल भेज दिया ! इस बीच उनके बड़ेभाई की भी मृत्यु हुई किन्तु उन्होंने अल्पकाल के लिए रिहा होने से मना कर दिया! ,,अंत में सरकार को उन्हें..  उसी वर्ष के अंत में छोड़ना पड़ा !

   १९३४ के बाद सरदार अब कांग्रेस में भी एक " सरदार " का कद अख्तियार कर चुके थे  और उनकी राय हर जगह ली जाने लगी थी ,, चाहे , वह विधान  मंडल  के लिए चुने जाने वाले लोगों के चयन के लिए हो या फिर किसी अन्य मुद्दे के लिए ! सर्वशक्तिमान नेता होने के बाद भी उन्होंने खुद के पद के लिए कभी उठापठक नहीं की और ना ही कोई महत्वकांक्षा पाली !

    शोशलिस्ट विचारों को कांग्रेस में मान्यता दिलाने के लिए जब नेहरू ने पहल की तो.. उन्होंने नेहरू का खुला विरोध किया ! सरदार का मानना था की इससे कांग्रेस दिशाभ्रमित होगी !,,,क्यूंकि सोशलिज्म और वामपंथ एक ही रंग रूप के सिद्धांत थे ,!,जो  कांग्रेस  के मूल सिद्धांत अहिंसा ,,और शांतिपूर्ण असहयोग को प्रभावित कर सकते थे !यही नहीं ,,,जब युवा नेता ,,, सुभाषचंद्र बोस ने भी कांग्रेस के सिद्धांत को गरमदल से जोड़ना चाहा  ,  तो सरदार  उनके   साथ नहीं  गए  !  यही कारण है की शोशलिष्ट और कुछ क्षुब्ध कांग्रेसी उनके  सदा के लिए  आंतरिक विरोधी बन गए !

  असली वक्त आया सं १९४२ , जब द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ ,,,तो ' अभी नहीं तो कभी नहीं ' की सोच पूरी  कांग्रेस में जाग्रत हो गयी !  नेहरू ने विधान मंडलों से कांग्रेस को अलग करने की पैरवी की ,,,और राजगोपालाचारी ने कहा की अंग्रेजों का पूरा साथ दिया जाना उचित होगा यदि वे हमें आज़ादी देने के लिए अनुबंध कर लें ! अंग्रेजों ने राजगोपालाचारी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो सभी , एकमतेन,," अवज्ञा   आंदोलन " छेड़ने के लिए सहमत हो गए ! यहीं से जवाहरलाल नेहरू और पटेल में थोड़ी समझ एक दूसरे के प्रति  बढ़ी  ! क्यूंकि पहले अवज्ञा आंदोलन को ले कर नेहरू , राजगोपालाचारी   और मौलाना आज़ाद ने आपत्ति उठाई थी ,  लेकिन पटेल के समझाने पर सब मान गए ! फिर भी जब कांग्रेस कमेटी के सामने कई लोगों ने इस आंदोलन के विरोध में आवाज़ उठाई तो पटेल ने  अंतिम  चेतावनी दे दी की अगर कांग्रेस नहीं मानती है तो वे , कांग्रेस छोड़ देंगे !पटेल हर हालत में गांधी के सिद्धांत पर चलना पसंद कर रहे थे ,,,जबकि कई लोगो इसे मंजूर नहीं कर रहे थे !  पटेल के दबाव के कारण ही ७ अगस्त1942  के ऐतिहासिक दिन को  ,  अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ ,,!

    इस आंदोलन को सफल करने के लिए सरदार ने धुआंधार मीटिंग जनता के बीच की   !   यद्यपि   भारत छोडो आंदोलन की इस मुहीम पर सम्पूर्ण कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार करके ,,,अहमदनगर जेल में डाल दिया गया जो १९४५ तक जेल  में रहे !,,इस जेल प्रवास में ही कस्तूरबा और महादेव देसाई की मृत्यु हुई जिससे सरदार को बहुत बड़ा दुःख पहुंचा ! ,  पीछे  जनता ने बहुत उग्र प्रदर्शन भी किये ,,,और जनता से पुलिस की झड़प भी होती रही !  इसे अंग्रेजों ने विद्रोह की संज्ञा दी ,,,और इसे १८५७ से भी बड़ा विद्रोह माना !   सरदार   इस दौरान जेल में रहे ,,और १९४६ में बाहर आने पर वह बड़ा परिवर्तन आया..... जब गांधीजी के कहने पर सरदार ने... कांग्रेस के अध्यक्ष पद.... से अपना नाम ,,     नेहरू को आगे करने के लिए   हटा लिया ! सरदार ने जेल में रहते हुए ही कहा की अब उनके विश्राम करने का समय आ गया है ,,,क्यूंकि उन्होंने बहुत परिश्रम कर लिया जो उनके  कूवत से भी बाहर था !  शायद,,,, कांग्रेस के बदलते परिदृश्य को वे भांप गए थे ,,और इसी लिए थकान अनुभव करने लगे थे !

१९४६  में अंग्रेजों ने सत्ता हस्तारण की बात शुरू की ,!,,और दो अलग राष्ट्रों की अवधारणा सामने आयी!  , जिसमें एक राष्ट्र,,,, धर्म आधारित,,," पाकिस्तान  "  की परिकल्पना  जिन्ना  ने की ! अब सवाल उठा की कौन सी  रियासत  किस राष्ट्र में विलीन होगी ,,,और यही वह समय था जब सरदार पटेल ,,,,एक लौहपुरुष के रूप में सामने आये ,,,और उन्होंने एक नए राष्ट्र को मूर्तवत किया !

    सच कहें तो १९४७ की कांग्रेस,,, सिर्फ तीन बड़े नेताओं के नामों की कांग्रेस  बची  थी ,,!   डाक्टर राजेंद्र प्रसाद , जवाहर लाल नेहरू , और सरदार पटेल !  इस   कांग्रेस   में अब बहुत शक्ति , और  ओज बचा ही नहीं था ,,इसी लिए गांधी ने कहा की,,,, कांग्रेस को डिजाल्व कर दो , और नए सिरे से एक पार्टी का गठन करो , जो देश का शाशन चलाये !  अगर यह प्रस्ताव मान लिया जाता तो नयी पार्टी में वे भी समाविष्ट होते , जो बाद में बाहर रह कर नेहरू के विरोधी दिखाई देते रहे ! सरदार की मृत्यु के बाद , और राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति बन जाने के बाद ,,, स्वतंत्रता आंदोलन की कांग्रेस तो एक ही व्यक्ति के नाम  शेष बची थी जो  " नेहरू " थे !  और यही कारण   हैकी बाद की भूलें ,,,आज  की  कंटक बनी हुई हैं !

      नेहरू कीमृत्यु के बाद ,,,,,, कांग्रेस,,,,,, कामराज , और निजलिंगप्पा तक  रही ,!,,लेकिन इंदिरा ने जब खुद को प्रधानमंत्री बनाने के लिए पार्टी से बगावत की,,, तो वह कांग्रेस ख़तम ही हो गयी जो वास्तविक कांग्रेस थी !!  बाद की कांग्रेस तो इंदिरा कांग्रेस कहलाई जिसका चुनाव चिन्ह भी बदला और टीम भी ! आश्चर्य है की स्वार्थी कांग्रेसियों ने उस समय के एक तेजस्वी कांग्रेस नेता की भी अवहेलना की ,,,जो मुरारजी देसाई थे !  बाद में यही नेता कांग्रेस के विरोधी नेता बन कर कुछ समय के लिए ही सही , लेकिन प्रधान मंत्री जरूर  बनाये गए थे !

    आज की कांग्रेस जो यह दावा करे की सरदार  उसकी  विरासत के हैं , तो ,वह गलत है ,,!! ना कांग्रेस वह  पुरानी कांग्रेस है ,,,और ना वे सिद्धांत बचे हैं  जो आज़ादी की लड़ाई के लिए  स्थापित हुए  थे   !  यह कांग्रेस तो सत्ता के लिए लड़ने वाली कांग्रेस है ,,,जिसका पुराणी कांग्रेस से ना  कोई  खून का रिश्ता है ,,ना विचारों का !  कोई कुछ भी कहे ,,,आज की कांग्रेस तो स्वार्थ और वंशपरम्परा से उपजी , चापलूस लोगों द्वारा समर्थित कांग्रेस है ,,जो सत्ता का मक्खन बिना किसी रिस्क के , पीछे  पीछे  रह कर खाना चाहते हैं !यह येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज रहने की कोशिश करते रहने वाली कांग्रेस है जिसका..स्वतंत्रता संग्राम में खून बहाने वाले कार्यकर्ताओं से कोई सम्बन्ध नहीं !

---sabhajeet


मंगलवार, 22 अगस्त 2017

 राजा हरिसिंह और भारत के गवर्नल जनरल के बीच काश्मीर को लेकर विलय हेतु   लिखी गयी  , स्वीकृति !

   यह स्वीकृति पात्र एक राज्य के प्रभुता संपन्न राजा का भारत में विलय हेतु किया गया अनुबंध है , जिसमें राजा , ने फौरी तौर पर , भारत के गवर्नल जनरल द्वारा , रियासतों को एक अन्य बिल  एक्ट १९३५  के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के आधार पर , संचार , रक्षा , और विदेश नीति , के अधिकार खुद अपने पास रखते हुए ,  शेष अधिकारों के लिए उनकी अपनी रियासतों के लिए खुद अपना संविधान बनाने की छूट दी !  भारत के गवर्नल जनरल ( वाइसराय लार्ड माउंट बेटन ) ने यह शर्त भी राखी की हर रियासत अपनी खुद की संविधान बनाने के लिए एक असेम्ब्ली रियासत में स्थापित करे और शीघ्र संविधान बनाये ! किन्तु कुछ राज्यों को छोड़ कर शेष अन्य रियासत असेम्ब्ली स्थापित करने और संविधान बनाने में असफल रहे , तब १९४९ में भारत का संविधानसभी रियासतों ने स्वीकार कर लिया और वे एक गणराज्य के अंतर्गत , भारत के संविधान को मानने हेतु अपनी स्वीकृति दे दिए ,,!

    राजा हरिसिंह ने अपने ही स्वीकृति पात्र में यह स्वीकार किया की भारत सरकार द्वारा यदि कोई अन्य नियम , काश्मीर के  शाशन के लिए बनाये जाते हैं तो उनके क्रियान्वय हेतु , यदि हमारी आपसी स्वीकृति होती है , तो वे नियम शाशन हेतु प्रतिबद्ध रहेंगे !

   राजा ने कहा की भारत सरकार अनिवार्यतः काश्मीर की जमीन का आधिपत्य करने के लिए स्वयं अधिकारी नहीं रहेगी , किन्तु यदि उसे आवश्यक होगा तो वह जमीन में  उन्हें भू भाग की राशि के भुगतान पर देने के लिए अनुबंधित हूँ !

  राजा ने यह भी लिखित रूप से कहा , की वह भविष्य में भारत के लिए रचे गए किसी भी संविधान को मानने के लिए बाध्य नहीं रहेंगे !  उन्होंने यह भी कहा की उनको एक शाशक के रूप में मिलने वाली सभी सुविधाएं भी भारत सरकार जारी रखेगी !

         यह स्वीकृति पात्र , भारत सरकार एक्ट १९३७ के परिप्रेक्ष्य में , रियासतों को दिए गए प्रावधानों के अंतर्गत स्वीकार माना जावे !  !  यह स्वीकृति पात्र एक राज्य के प्रभुता संपन्न राजा का भारत में विलय हेतु किया गया अनुबंध है , जिसमें राजा , ने फौरी तौर पर , भारत के गवर्नल जनरल द्वारा , रियासतों को एक अन्य बिल  एक्ट १९३५  के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के आधार पर , संचार , रक्षा , और विदेश नीति , के अधिकार खुद अपने पास रखते हुए ,  शेष अधिकारों के लिए उनकी अपनी रियासतों के लिए खुद अपना संविधान बनाने की छूट दी !  भारत के गवर्नल जनरल ( वाइसराय लार्ड माउंट बेटन ) ने यह शर्त भी राखी की हर रियासत अपनी खुद की संविधान बनाने के लिए एक असेम्ब्ली रियासत में स्थापित करे और शीघ्र संविधान बनाये ! किन्तु कुछ राज्यों को छोड़ कर शेष अन्य रियासत असेम्ब्ली स्थापित करने और संविधान बनाने में असफल रहे , तब १९४९ में भारत का संविधानसभी रियासतों ने स्वीकार कर लिया और वे एक गणराज्य के अंतर्गत , भारत के संविधान को मानने हेतु अपनी स्वीकृति दे दिए ,,!

      अब  यह  देखना  जरूरी है की गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट १९३५ क्या है ,,?

   वस्तुतः यह एक्ट तब बना था जब भारत , ब्रिटिश सत्ता के पूर्णतः आधीन था !इससे स्वतन्त्र भारत और उसके भविष्य से , देखा जाए तो कोई लेना देना नहीं है ! यह उस समय प्रथम विश्वयुद्ध से उपजी स्थितियों का फल था  की अंग्रेजों ने , जो भाग उनके आधीन था , और जिसे वे ब्रिटिश इंडिया कहते थे , उस के लिए चुनी हुई सरकार की पद्धति प्रारम्भ की ! उस समय अंग्रेजों ने भारत को कई तीन राज्य पद्धतियों में विभक्त किया , ,,ब्रिटिश राज्य के आधीन  भारत , छोटे छोटे जागीरदारों के राज , और राजाओं द्वारा शाषित राज ,,,जिनमें दक्षिण में , हैदराबाद , मैसूर , और त्रावणकोर , था , उत्तर में काश्मीर , और सिक्कम था , और मध्य में इंदौर था !   इन राजाओं को तोपों की सलामी देने का अधिकार था इसलिए ये राज्य  " गन सेल्यूट " कहलाते थे !

     एक्ट १९३५ में   ,   इन राज्यों को दिए गए अधिकारों , और सम्प्रभुता का जिक्र है , इसके अलावा कुछ नहीं ! वह भी इस लिए क्यूंकि जब अंग्रेजों ने ब्रिटिश इंडिया राज में स्व चयनित राज की परिपाटी का एलान किया तो , ये राज चूँकि ब्रिटिश इंडिया के प्रशाशन क्वे अंतर्गत नहीं थे इस लिए इन्हे अलग रखा गया !

     तो आज बार बार , भारत की स्वाधीनता के बाद , भारत के संविधान के बन जाने के बाद भी , काश्मीर को लेकर एक्ट १९३५ और राजा हरी सिंह के संधिपत्र का हवाला दे कर , काश्मीर को अलग प्रांत मानने की वकालत हो रही है ,,??   इस राज को जानने की जरुरत है !

 खुद  को स्वयंभू  ' शेरे कश्मीर " कहने वाले ,,शेख अब्दुला ,,,ने राजा हरिसिंह के शाशन के विरुद्ध बगावत की ! जब देश में लोग अंग्रेजों की हुकूमत के विरुद्ध बगावत और विरोध कर रहे थे तो अब्दुला ने उसी तर्ज़ पर , अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से शिक्षा लेने के बाद , "  मुस्लिम कांफ्रेंस " नाम की पार्टी बनायी ! जवाहर लाल नेहरू के संपर्क में आनी के बाद , यह ' नॅशनल कांफ्रेंस " नामक पार्टी में तब्दील हो गयी ! शेख अब्दुला के पूर्वज पहले हिन्दू थे , किन्तु उनके पिता ने मुस्लिम धर्म अपना लिया तो शेख अब्दुला जन्मे ! राजा हरी सिंह ने शेख अब्दुल्ला को बगावत करने के कारण  जेल में डाल दिया ! प्रारम्भ में , नेशनल कांफ्रेंस में सभी जातियों के लोग सम्मलित हुए , किन्तु बाद में वह मुस्लिम धर्म नेताओं के सम्मलित होने पर मात्र मुस्लिम नेताओं की पार्टी बन कर रह गयी ! शेख अब्दुला को जेल में डालने का विरोध हुआ , और तब गांधी जी की अपील पर विरोध प्रदर्शन जब बंद हुए तो शेख अब्दुला जनता के चाहते नेता बन कर उभर गए !  महाराजा हरिसिंह के द्वारा जब काश्मीर का विलय भारत में कर दिया गया तो उन्ही के कहँवे पर उन्हें काश्मीर का प्रधान मंत्री बनाया गया ,,,क्यूंकि  स्वीकृति पत्र में , राजा हरिसिंह ने काश्मीर की सम्प्रभुता को अलग रखने की संधि की थी !

    जल्दी ही शेख अब्दुला का मुस्लिम चेहरा उजागर हो गया , जब उसने , " स्वतन्त्र काश्मीर " का नारा दिया और उसके पक्ष में भाषण दिए ! तब नेहरू को ही उसे हटा कर जेल में डालना पड़ा और वह ग्यारह साल जेल  में रहा   बाद में उसकी मृत्यु हो गयी !  ,,,!

    अब सवाल है की क्या जूनागढ़ , और हैदराबाद की समस्या काम जटिल थी जो उस समय खुद को पाकिस्तान में विलय करने की बात कर रहे थे !  तब सरदार पटेल ने एक ही झटके में उन्हें ठंडा कर दिया और वे भारत के अंग बन ककर भारत का संविधान मान लिए ! काश्मीर भी राजा शाषित राज्य था , उसके द्वारा भी विलय संधि हुई , सभी विलय संधियों में एक्ट १९३५ का प्रावधान था , ब्रिटिश इंडिया में ये राज भी स्वतन्त्र थे ,,तब वे कैसे भारत के अंग बन गए  और काश्मीर नहीं बना ??राजा हरिसिंह और भारत के गवर्नल जनरल के बीच काश्मीर को लेकर विलय हेतु लिखी गयी , स्वीकृति !
यह स्वीकृति पात्र एक राज्य के प्रभुता संपन्न राजा का भारत में विलय हेतु किया गया अनुबंध है , जिसमें राजा , ने फौरी तौर पर , भारत के गवर्नल जनरल द्वारा , रियासतों को एक अन्य बिल एक्ट १९३५ के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के आधार पर , संचार , रक्षा , और विदेश नीति , के अधिकार खुद अपने पास रखते हुए , शेष अधिकारों के लिए उनकी अपनी रियासतों के लिए खुद अपना संविधान बनाने की छूट दी ! भारत के गवर्नल जनरल ( वाइसराय लार्ड माउंट बेटन ) ने यह शर्त भी राखी की हर रियासत अपनी खुद की संविधान बनाने के लिए एक असेम्ब्ली रियासत में स्थापित करे और शीघ्र संविधान बनाये ! किन्तु कुछ राज्यों को छोड़ कर शेष अन्य रियासत असेम्ब्ली स्थापित करने और संविधान बनाने में असफल रहे , तब १९४९ में भारत का संविधानसभी रियासतों ने स्वीकार कर लिया और वे एक गणराज्य के अंतर्गत , भारत के संविधान को मानने हेतु अपनी स्वीकृति दे दिए ,,! किन्तु काश्मीर ने नहीं दी ,,,क्यों ,,? इसके कारण है नेहरू द्वारा पैदा किये गए काश्मीर के स्वयं भू नेता ,,शेख अब्दुल्ला ! जो शुरू से ही काश्मीर को स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य की तरह देख रहे थे ,,और दूसरे उन्हें मौका मिल गया नेहरू की गलती का ,,,जो नेहरू यु एन ओ में जाकर , काश्मीर को अंतर राष्ट्रीय समस्या बना दिए ! बहाना लिया गया गवर्मेंट ऑफ़ इंडिया के एक्ट १९३५ तथा , राजा की संधि में लिखी शर्तों का !
अब यह देखना जरूरी है की गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट १९३५ क्या है ,,?
वस्तुतः यह एक्ट तब बना था जब भारत , ब्रिटिश सत्ता के पूर्णतः आधीन था !इससे स्वतन्त्र भारत और उसके भविष्य से , देखा जाए तो कोई लेना देना नहीं है ! यह उस समय प्रथम विश्वयुद्ध से उपजी स्थितियों का फल था की अंग्रेजों ने , जो भाग उनके आधीन था , और जिसे वे ब्रिटिश इंडिया कहते थे , उस के लिए चुनी हुई सरकार की पद्धति प्रारम्भ की ! उस समय अंग्रेजों ने भारत को कई तीन राज्य पद्धतियों में विभक्त किया , ,,ब्रिटिश राज्य के आधीन भारत , छोटे छोटे जागीरदारों के राज , और राजाओं द्वारा शाषित राज ,,,जिनमें दक्षिण में , हैदराबाद , मैसूर , और त्रावणकोर , था , उत्तर में काश्मीर , और सिक्कम था , और मध्य में इंदौर था ! इन राजाओं को तोपों की सलामी देने का अधिकार था इसलिए ये राज्य " गन सेल्यूट " कहलाते थे !
एक्ट १९३५ में , इन राज्यों को दिए गए अधिकारों , और सम्प्रभुता का जिक्र है , इसके अलावा कुछ नहीं ! वह भी इस लिए क्यूंकि जब अंग्रेजों ने ब्रिटिश इंडिया राज में स्व चयनित राज की परिपाटी का एलान किया तो , ये राज चूँकि ब्रिटिश इंडिया के प्रशाशन क्वे अंतर्गत नहीं थे इस लिए इन्हे अलग रखा गया !
तो आज बार बार , भारत की स्वाधीनता के बाद , भारत के संविधान के बन जाने के बाद भी , काश्मीर को लेकर एक्ट १९३५ और राजा हरी सिंह के संधिपत्र का हवाला दे कर , काश्मीर को अलग प्रांत मानने की वकालत हो रही है ,,?? ऐसा क्यों ,,??
इस राज को भी जानने की जरुरत है !

खुद को स्वयंभू ' शेरे कश्मीर " कहने वाले ,,शेख अब्दुला ,,,ने राजा हरिसिंह के शाशन के विरुद्ध बगावत की ! जब देश में लोग अंग्रेजों की हुकूमत के विरुद्ध बगावत और विरोध कर रहे थे तो अब्दुला ने उसी तर्ज़ पर , अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से शिक्षा लेने के बाद , " मुस्लिम कांफ्रेंस " नाम की पार्टी बनायी ! जवाहर लाल नेहरू के संपर्क में आनी के बाद , यह ' नॅशनल कांफ्रेंस " नामक पार्टी में तब्दील हो गयी ! शेख अब्दुला के पूर्वज पहले हिन्दू थे , किन्तु उनके पिता ने मुस्लिम धर्म अपना लिया तो शेख अब्दुला जन्मे ! राजा हरी सिंह ने शेख अब्दुल्ला को बगावत करने के कारण जेल में डाल दिया ! प्रारम्भ में , नेशनल कांफ्रेंस में सभी जातियों के लोग सम्मलित हुए , किन्तु बाद में वह मुस्लिम धर्म नेताओं के सम्मलित होने पर मात्र मुस्लिम नेताओं की पार्टी बन कर रह गयी ! शेख अब्दुला को जेल में डालने का विरोध हुआ , और तब गांधी जी की अपील पर विरोध प्रदर्शन जब बंद हुए तो शेख अब्दुला जनता के चाहते नेता बन कर उभर गए ! महाराजा हरिसिंह के द्वारा जब काश्मीर का विलय भारत में कर दिया गया तो उन्ही के कहँवे पर उन्हें काश्मीर का प्रधान मंत्री बनाया गया ,,,क्यूंकि स्वीकृति पत्र में , राजा हरिसिंह ने काश्मीर की सम्प्रभुता को अलग रखने की संधि की थी !
जल्दी ही शेख अब्दुला का मुस्लिम चेहरा उजागर हो गया , जब उसने , " स्वतन्त्र काश्मीर " का नारा दिया और उसके पक्ष में भाषण दिए ! तब नेहरू को ही उसे हटा कर जेल में डालना पड़ा और वह ग्यारह साल जेल में रहा बाद में उसकी मृत्यु हो गयी ! ,,,!
अब सवाल है की क्या जूनागढ़ , और हैदराबाद की समस्या काम जटिल थी जो उस समय खुद को पाकिस्तान में विलय करने की बात कर रहे थे ! तब सरदार पटेल ने एक ही झटके में उन्हें ठंडा कर दिया और वे भारत के अंग बन कर भारत का संविधान मान लिए ! काश्मीर भी राजा शाषित राज्य था , उसके द्वारा भी विलय संधि हुई , सभी विलय संधियों में एक्ट १९३५ का प्रावधान था , ब्रिटिश इंडिया में ये राज भी स्वतन्त्र थे ,,तब वे कैसे भारत के अंग बन गए और काश्मीर नहीं बना ??
सच तो यह है की काश्मीर के प्रति शुरू से लापरवाही बरती गयी ,,,! पहले तो जब कबायलियों ने आक्रमण किया तो उन्हें पुरे काश्मीर से हटाने की जगह सिर्फ थोड़े से हिस्से से हटा कर युद्ध रोक दिया गया ,,,और इस प्रकरण को नेहरू बे वजह यु एन ओ ले जा कर विवाद का विषय बना दिए ! बाद में शेख अब्दुला को काश्मीर की गद्दी सौंप दी , जो बाद में जल्दी ही प्रकट हो गयी की वह एक स्वतन्त्र काश्मीर मुस्लिम राज चाहता है ! उसे हटा कर जेल में डाला ,,,तो घिसे पिटे एक्ट १९३७ और संधि शर्तों में उलझ कर नए एक्ट ३५ै ऐ तथा ३७० बना लिए ! ये एक्ट भी संसद में पारित नहीं हुए , और सिर्फ राष्ट्रपति से आदेश बनवा कर काश्मीर में लागू करवा दिए !
दूसरी और देखिये , क्या पी ओ के वाले काश्मीर के हिस्से पर पाकिस्तान ने ऐसे ही एक्ट बना कर लागू किये ,,?? क्या उस हिस्से के सम्प्रभुता , राजा हरिसिंह के राज के आधीन नहीं थी ? क्या उस पर ब्रिटिश काल का एक्ट १९३५ लागू नहीं होता है ,,? तब पाकिस्तान ने वहां कौन सी शराफत दिखाई , जो हम दिखाने में लगे रहे ! ,??
अब वक्त आया है जब इन ऐक्ट के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय से एक्ट हटवाने का जो संसद पारित हैं ही नहीं तो हमारे वाम पंथी प्रबुद्ध लोग हमें सीखा रहे हैं की इतिहास क्या है !
लेकिन याद रहे वक्त करवट बदलता है ,,,, जिन काश्मीरी ब्राम्हणो को यह सीख दी जा रही है की आप वहां रह कर लड़े क्यों नहीं , उनकी और से जबाब है की जब बल का ही प्रयोग करना है तो क्यों ना हम पुरे काश्मीर को वापिस लेने के लिए करेंगे ,,और जो एक्ट लगाए वो हम अपने ही न्यायालय से रद्द करवाएंगे !
राजा हरिसिंह ने अपने ही स्वीकृति पात्र में यह स्वीकार किया की भारत सरकार द्वारा यदि कोई अन्य नियम , काश्मीर के शाशन के लिए बनाये जाते हैं तो उनके क्रियान्वय हेतु , यदि हमारी आपसी स्वीकृति होती है , तो वे नियम शाशन हेतु प्रतिबद्ध रहेंगे !
राजा ने कहा की भारत सरकार अनिवार्यतः काश्मीर की जमीन का आधिपत्य करने के लिए स्वयं अधिकारी नहीं रहेगी , किन्तु यदि उसे आवश्यक होगा तो वह जमीन में उन्हें भू भाग की राशि के भुगतान पर देने के लिए अनुबंधित हूँ !
राजा ने यह भी लिखित रूप से कहा , की वह भविष्य में भारत के लिए रचे गए किसी भी संविधान को मानने के लिए बाध्य नहीं रहेंगे ! उन्होंने यह भी कहा की उनको एक शाशक के रूप में मिलने वाली सभी सुविधाएं भी भारत सरकार जारी रखेगी !
यह स्वीकृति पात्र , भारत सरकार एक्ट १९३5 के परिप्रेक्ष्य में , रियासतों को दिए गए प्रावधानों के अंतर्गत स्वीकार माना जावे !



     राजा हरिसिंह के शाशन काल में ही नेहरू ने ,,मुस्लिम लीडर और तत्कालीन अलगाव वादी , नेता ,



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