शनिवार, 13 दिसंबर 2014


 !!  " भूतलीला " ,,,!!

    ( मंच पहले सूना रहता है !
    { फिर एक व्यक्ति का प्रवेश )

    व्यक्ति :- ( स्वतः ) ,,, ' हमेशा भाग्य ,, भाग्य ,,!! कितना भी काम करो ,, सफलता नहीं मिलती ! और कुछ लोग  हैं  कि  बिना कुछ किये ही चढ़ गए सफलता के सिंहासन पर ,,,!   न जाने क्या सोच कर मेरे पिता ने मेरा नाम रखा था - " गौरव सिंह " ,,! लेकिन ,,,किस बात का गौरव ,,??  किस काम का गौरव ,,,?? ,, अब तो खुद अपने पर ही तरस आने लगा है ---न  जाने कब होगा  ,,  कैसे होगा ,  मेरा उद्धार ,,,!!

     ( मंच पर विविध  रंगीन प्रकाश का आवागमन )

      ( तभी एक अन्य  व्यक्ति  विचित्र वेशभूषा में मंच पर आता है !}
  {  यह व्यक्ति अधेड़ है ,, तथा ' तांत्रिकों ' की तरह पोशाक धारण किये है ! हाथ में एक बड़ी सी ' गठरी ' है ,,, और तरह तरह के सामान , ,, मालाएं ,, आदि कंधे पर लादे हैं ,,! )

  तांत्रिक   -      ' ' कहो गौरव सिंह  ,,!! ,, क्योँ  बड़बड़ा रहे हो ,,?? "

  गौरव सिंह :-     ' ( चौंक कर उसे घूरते हुए ) ,,, तुम ,,??,,,, कौन हो तुम ,,??  और तुम्हे कैसे मालूम की मेरा                                  नाम गौरव सिंह है ,,? "

 तांत्रिक:-            ( हँसते हुए ) ,, ' त्रिलोकीनाथ ' से क्या छिप  सका     है  गौरव  सिंह ,,? ,,, त्रिलोकी नाथ          
                                क्या   नहीं  जानता ,       ,??

  गौरव सिंह :-       ( संदेह से  तांत्रिक  को घूरते हुए ) ।'
                          " , त्रिलोकीनाथ  ,,??,,, क्या मतलब ,,,??  "

   त्रिलोकीनाथ  :-   " त्रिलोकीनाथ का मतलब नही जानते  ' गौरव सिंह ' ,,??   कैसे मूर्ख बुद्धिजीवी हो,,
                        तुम ,,??

   गौरव सिंह ;-  " त्रिलोकीनाथ ' का मतलब  मैं  खूब जानता हूँ , ,,,,, तीनो लोकों का स्वामी ' ,, लेकिन तुम  वह
                          त्रिलोकीनाथ  तो हो नहीं ,,!! "
   त्रिलोकीनाथ ;- ' मेने कब कहा कि  मैं वह त्रिलोकीनाथ  हूँ ,,!,, जैसे तुम गौरव सिंह होकर भी वह गौरव सिंह
                        नहीं ,,, उसी प्रकार  मैं  त्रिलोकीनाथ होकर भी  वह त्रिलोकीनाथ नहीं हूँ ,,! "
  गौरव सिंह ;-   " ( उपेक्षा से  कंधे उचकाते हुए  ) ,,,  ,," होगा ,,!!,,इससे मुझे क्या ,,?? ,,, (रूककर घूरते हुए )
                     … क्यों मेरे पीछे पड़े हो ,,??   कोई और शिकार ढूंढो ,,!!
  त्रिलोकीनाथ ;- ( किंचित क्रोध में ) ,, मैं कोई शिकारी नहीं  मूर्ख ,,!!  मैं त्रिलोकी नाथ हूँ ,,!! '
  गौरव सिंह ;- ' तो बने रहो ,,त्रिलोकीनाथ ,,!  लेकिन मेरा पिंड छोडो ,,!  मैं इस समय बहुत डिस्टर्ब  हूँ '
  त्रिलोकीनाथ ;- ( मुस्कराते हुए ) ,, मुझे डिस्टर्ब लोग बहुत अच्छे लगते हैं ,, ! मैं डिसटर्ब लोगों के ही काम
                     आता हूँ ,,!
  गौरव सिंह ;- ( सर हिलाते हुए ) ,,  अच्छा ,,?? ,, तो बताओ  क्या कर सकते हो तुम मेरे लिए ,,??
   त्रिलोकीनाथ  ;-  ( गठरी नीचे रखते हुए ),, पहले तुम अपनी जेब में बची वह आखरी सिगरेट  मुझे
                        पिलाओ   ,, जो तुमने  अपने दोस्त के  ' पैकेट ' से चुराई है ,,!!
  गौरव सिंह :- ' ( चौंक कर ) ,,' सिगरेट ,,?? ,,( स्वतः  ),,,इसे कैसे मालूम  कि  मेरी जेब में  एक '
                      सिगरेट ' है ,,??
                     ( प्रकट में ) ,,' सिगरेट अगर   मैं तुम्हें दे दूंगा ,तो फिर मैं क्या ,पियूँगा ,,??  मेरे  पास तो  बस                            अब  एक यही सिगरेट बची है ,,! "
त्रिलोकीनाथ ;-   { हँसते हुए }
                         " बच्चा ,,! " ,, त्रिलोकीनाथ  की  कृपा  होगी   तो  सिगरेट कंपनी का ' मालिक ' बन जाएगा
                     ,,, तूँ,,  समझा ,,??
 गौरव सिंह ;- ( घूरते हुए ) ,,, बहुत खूब ,,!!,,, अब तुम से ' तूँ '   पर उतर  आये,,,त्रिलोकीनाथ ,,? ,,
                     ( रुक कर ),,मुझे  बेवकूफ बनाने की कोशिश मत  करो ,,,  " और चलते बनो यहां से ,,, समझे ,,? '
  त्रिलोकीनाथ -- " जैसी तेरी इच्छा मूर्ख ,,! बाद में न  पछताना  की भाग्य जो  मिला तो उसे भी ठुकरा दिया ! "
गौरव सिंह  -      [चौंक कर ]  ,," भाग्य ,,??   ( रोकते हुए )  ,,अरे  अरे ठहरो ,,त्रिलोकीनाथ बाबा ,,!  आप तो                            औघड़ लगते हैं ! "
त्रिलोकीनाथ - ( मुड़ कर वापिस आ जाता है ),",देर से पकड़ता है  बेवकूफ   इसी लिए अभी तक असफल रहा  !
गौरवसिंह -   "  गलतीतो  इंसान से ही होती है न  बाबा ! ,,लेकिन अब आप यहाँ बिराजें ,,( जेब से सिगरेट                                 निकालता है )   और हाँ ,,!  यह लीजिये सिगरेट और ये माचिस ,,! "
त्रिलोकीनाथ -"   मुझे क्या कहीं आग  लगाना  है मूर्ख ,,??   माचिस अपने ही हाथ में रख ,,,सिगरेट तू खुद                                  जलाकर दे ,,!! "
  गौरव सिंह -- ( स्वतः )   अजीब आदमी से पाला पड़ा है ,,खैर , ( प्रकट में ,,) ,,,यह लीजिये में जला कर दे रहा हूँ ,,! "
त्रिलोकीनाथ -  ( सुट्टा लगाते  हुए ) ,,," अब बोल गौरव सिंह ,,! "
गौरव सिंह -- " मैं क्या बोलूं ,,??  अब आप त्रिलोकीनाथ हैं तो आप ही  बोलें,,,!  बताएं मेरे बारे में ,  तभी मैं समझूँ  की आप क्या कुछ कर सकते हैं मेरे लिए ! ,! "
त्रिलोकीनाथ - (  मुस्कराते हुए ) ,," शंका ,,,!  संदेह ,,!! यही कारण है जिससे तू कन्फ्यूज़ रहता है और कुछ नहीं कर सका है अबतक ,,! "
गौरवसिंह ---( स्वतः )  ,,इंग्लिश भी जानता  है ,,,!! ( प्रकट में ) ," ,हाँ बाबा ,,!! यह कमी तो है मुझमें ,,!! ,,,लेकिन कमियों के  अलावा भी तो  कुछ   बताइये  न  मेरे बारे में  ,,!!
त्रिलोकीनाथ -- " और क्या जानना चाहता है ,,?? यही न  की तू एक एक्टर बनना चाहता है   और हालत यह है की जिस ड्रामे में तू काम कर रहा था  उसके डायरेक्टर ने ,,आज ही तुझे उस ड्रामे से निकाल कर  दूसरे  एक्टर  को रख लिया ,,?? "
गौरवसिंह ( भौचक्का होकर ) -"-बिलकुल सही है बाबा !,,लेकिन   अब मैं क्या करूँ ,,??"
त्रिलोकीनाथ   -  " तू मुझसे कुछ खरीद ले !"
गौरव सिंह --" आपसे ,,??  आपके पास क्या है ,,?? "
त्रिलोकीनाथ ,,-  ( पोटली दिखाते हुए )  ,," यह जो पोटली है  मेरे पास ,,,इसमें से कुछ खरीद ले "
गौरवसिंह -- " बाबा ये पोटली की चीजें  मेरे किस काम की  ,,?? और मेरे पास तो पैसे भी नहीं  है ,कुछ भी ,खरीदने के लिए !,  खाली जेब हूँ ,,,बेरोजगार ,! "
त्रिलोकीनाथ -- { आँखें तरेर कर } ,,, " झूठ बोलता है ,,?? ,,क्या तेरी जेब में वह पचास रूपये का नोट  नहीं  जो तूने आज ही माँगा है अपने  दोस्त से ,,,उधार  ,,?? "
गौरवसिंह -- { चौंक कर ) ,," कौन हो तुम बाबा ,,?? जो मेरी जेब के बारे में भी  जानते हो ,,??
 "
  त्रिलोकीनाथ   ( हँसते हुए ) ,,," त्रिलोकीनाथ " ,,!!
गौरवसिंह --  ( उखड़े स्वर में ),,, " त्रिलोकीनाथ ??,, ,,या फिर उसी डायरेक्टर के भेजे  हुए कोई शातिर एक्टर,,??  ,,,जो मुझे बर्बाद करने पर तुला है ,,?? "
 त्रिलोकीनाथ --( क्रोध में पैर पटकते हुए ) --" तू मुझ पर शक कर रहा है , मूर्ख ,??? ,,,जा पड़ा रह नाकामयाबी के उसी  गटर में ,,,तेरा उद्धार कोई भी नहीं कर सकता ,,!!" ( जाने लगता है )
गौरव --( हकलाते हुए ) " ,,,,अरे ,,अरे ठहरो  औघड़  बाबा ,,,!!,,,जब आप मेरे बारे में इतना जानते हैं ,,,तो फिर आज  मेरा उद्धार भी करते ही जाओ ,,,देखो ना ,,अभी अभी मैने आप को एक सिगरेट  पिलाई है ,,! "
त्रिलोकी नाथ -- " इसी लिए तो तेरे से कुछ लगाव  भी होगया ,,,वरना बाबा इतनी देर तो किसी की नहीं सुनते ,,,,कहीं नहीं ठहरते ,!"
  गौरव --"  गुस्सा मत होइए बाबा ! माफी चाहता हूँ ,!,अब ,  बताइये  किस तरह होगा मेरा उद्धार ,,?? "
   त्रिलोकी नाथ -- " कहा तो  ,,,,की  कुछ खरीद ले  मुझ से  " ,,!!
गौरव --( स्वतः )     बुरा क्या है यार गौरव ,,?   देख ले क्या है इस औघड़ के पास  ( प्रकट में ) ,,,ठीक है बाबा ,,,!! मैं खरीद लेता  हूँ   सामान ,,!  लेकिन मैं अपनी इच्छा से  चुन कर ही  खरीदूंगा ,,! "
त्रिलोकीनाथ --- ( उसे देख कर रहस्य्मयी  मुस्कान उस पर डालता है ) ,,," ठीक है बच्चा ,,! " ,,,तू भी क्या कहेगा ,,!!    चुन ले सामान  ,,,जो चाहिए तुझे ,,! "
गौरव सिंह --- (  औघड़ को ऊपर से नीचे तक देखता है  फिर उंगली उठा कर ) ,,," मुझे वह अंगूठी दे दीजिये   जो आप बाएं हाथ में पहने हैं ,,! "
त्रिलोकीनाथ -  ( हँसते हुए ) -" यह अंगूठी तू ना सम्हाल पायेगा गौरव ,,,यह  बहुत  कीमती  है ! "
गौरव सिंह --  " अब जो कुछ मेरी जेब में  है वो दे   तो रहा हूँ आपको ,,,और आप ही ने तो कहा ,,,' की चुन ले सामान ,,जो तुझे चाहिए ' ,,!"
त्रिलोकीनाथ --"  यह अंगूठी   मिस्त्र  की एक ममी  के हाथ से निकाली गयी अंगूठी है ,,,वह ममी भी एक बहुत बड़े ओझा की  थी  ,,,सोच ले तू सम्हाल सकेगा इसे ?,,,,यह अंगूठी जादुई अंगूठी है ,,! "
गौरव सिंह --" यह तो देखा जाएगा  बाबा ,,!!   अब तो मुझे यही अंगूठी चाहिए ,,! "
त्रिलोकीनाथ ---" यह अंगूठी तुझे कुछ नहीं  दे सकेगी   गौरव ,,!,,,यह सिर्फ तेरी अतृप्त इच्छाओं को बखूबी  दृश्यगत  करेगी ,,हाँ उससे अगर कुछ फ़ायदा हो जाए तो और बात है ! "
गौरव --  ( जिद पूर्वक ) ,,, " अब चाहे जो हो जाए ,,,मुझे तो बस यही अंगूठी चाहिए बाबा ,,! ,,,और फिर  मैं अपनी जेब का एकलौता पचास का नोट  भी तो इस अंगूठी  पर कुर्बान करने को तैयार हूँ ना ,बाबा ?  "
  त्रिलोकीनाथ  __ ( हँसते हुए ) ,,  " बाबा को नोटों की क्या दरकार ,गौरवसिंह ,,!!,,   मैं  तो सिर्फ इसलिए कह रहा हूँ  की मुफ्त में मिली चीज़ की कीमत  वह व्यक्ति  नहीं जानता  जिसे चीज़ मुफ्त में मिल  जाए,,!   समझा   ?? ,"
गौरव सिंह-- ( स्वतः ) ,,समझा ,,त्रिलोकीनाथ ,,,तुम्हे तो पॉलिटिक्स  में होना चाहिए था ,,! (  प्रकट में ) ,,,," ठीक है  बाबा ,,,आप मुझ से ये पचास रूपये ले लें ,,और अंगूठी दे दें ,,! "
त्रिलोकीनाथ ---" ( अंगूठी उतार कर देता हुआ ) ,,," यह ले  गौरव सिंह ,, इसे पहनने से पहले तू  जो भी  सोच रहा होगा  तुझे  वही बना देगी यह अंगूठी  ,,! ,,,,लेकिन खबरदार  ,,,!! ,,अगर तूने यह  अंगूठी पहन कर  हाथ से कोई व्यापार   किया तो यह अंगूठी तेरे हाथ से गायब हो कर फिर से  मेरे पास वापिस लौट आएगी ,,,समझा ,,?? "
गौरव सिंह __  " समझा ! " ,,," अब यह लीजिये पचास का नोट  बाबा ,,!  यह नोट  भी कम करामाती नहीं है ,,परसों किसी और की जेब में था ,,  कल मेरे दोस्त की जेब में आया  और आज ,, ,,,अभी  मेरी  में है !   ,,,आगे आपकी जेब में जा रहा  हैं    ,,! ( हँसते हुए ) है न करामाती अंगूठी के बदले करामाती नोट बाबा  ??  ,,,!!
त्रिलोकी नाथ --( हँसते हुए )  बहुत   होशियार है ,,,!,,,खैर ,,,अब तू जान और तेरे यह अंगूठी जाने ,,! मैं तो चला !  ( चल देता है , कुछ दूर जा कर ,,,अचानक ठिठक कर वापिस आ कर   गौरव सिंह के कान के पास बोलता है  ) ,,,"  और गौरव सिंह ,,!!   औघड़ बनने से पहले मैं एक   बहुत बड़ा " पॉलीटीशियन " ही था,,,,समझा ,,??  ! "
गौरव सिंह ---  (  चौंक कर )  "  हैं ,,?? ,,,समझा ,,!!बाबा  खूब  समझा ,,,"!!
(  बाबा मंच से बाहर चला जाता है ,,,गौरव सिंह हैरान हो कर उसे पीछे से  देखता रह जाता है ,,फिर  अंगूठी को  गौर से देख कर )
    ",,,-हूँ ,,,,!!   तो यह अंगूठी है ,,जादुई अंगूठी  ,,,एक ओझा की ममी की उंगली से निकाली गयी  जादुई अंगूठी,,! ,,,बहुत खूब बाबा ,त्रिलोकी नाथ ,,,अच्छा झटका दे गए  तुम मुझे ,,  मेरी एक सिगरेट पी गए और लूट ले गए मेरा एकलौता पचास रुपये का नोट,,,,,ठीक कहते थे मेरे पिता की  बेटा गौरव सिंह ,,  तू मूर्ख शिरोमणि होने  का गौरव ही प्राप्त कर सकेगा ! सो बना गया यह बाबा भी मुझे ,,,मूर्ख ,,!!,, लेकिन ,ठीक है,,,,, सौदा घाटे का नहीं है ,! बदले में यह अंगूठी भी तो ले ली है मैनें ,,!!,, ,बहुत खूब ,,,,,,अब देखता हूँ की यह कितनी करामाती है   और कितनी खुराफाती ,,! ,,,,कहता था की ओझा के हाथ की है ,,, अगर में ओझा होता तो बुलाता सभी  भूतों को ,,,एक से एक बहुत से भूत ,,! ,,,एक्टर के भूत ,,,डायरेक्टरों के भूत ,,,और फिर करता उनसे  खिलवाड़ ,,,और दिखाता उस डायरेक्टर  के बच्चे को   की क्या होती है एक्टिंग ,,  और क्या होता है डायरेक्टर ,,!,,,अभी भी क्या बिगड़ा है ,,? देखता हूँ इस अंगूठी को पहन कर ,,,कैसा लगता है ,,!

   ( अंगूठी पहनता है ,,,तीव्र चमक और नेपथ्य में  समवेत कई स्वर ,,गौरव सिंह का पूरा शरीर , हाथ पैर , भोंह , आँख थिरकती हैं वह झूमता है ,,और नाक से हों हों की आवाज़ निकलती है  और फिर वह एक ओझा की  तरह थिरकता  है  उसके मुँह से कबीले वाले मन्त्रों की आवाजें निकलती हैं  )

,,,,' ढब ढब ,,,चिक चिक ,,हुम्मा हुमा ,,चिकग्ग  चिकग्ग डब डब ,, डैम डैम खट खट ,,,,,हो ,,!  हो ,,,,,!!,,
,,,(,झूम झूम  कर उच्च स्वर में चींखते हुए ),,,,,,
,,,,,,,,"    चल सामने आ ,,,जिन्न ऐ    मसान,,, ले कर अपने सब सामान,,,!!  ओ  मरघट के राजा ,, बजा बाज़ा ! होजा हाज़िर मेरे आगे  जोड़ कर अपने हाथ ,,,ले हुकुम ,,और कर पूरा  काम ,! खींच ला उसे ,,,जिसका बताऊँ मैं  नाम ,, बना दे उसको  मेरा गुलाम ,,,  दिग दिग चिक चिक ढब ढब ,,!"

   (  नेपथ्य में भूतों की  आवाज़ें   चीखें  ) ( एक घरघराई आवाज़ --,",,हुकुम करें मेरे आका " )

  गौरव सिंह -" - आजा  मसान के राजा ,,,चल पेश कर  एक भूत  ,,,डायरेक्टर का ,भूत ,  जो बने मेरा गुलाम ,,!!"
     ( नेपथ्य से ,,,   घिघयाते स्वर में  आवाज़ )


  ----" हाज़िर हूँ ओझा ,,,!  मेरे आका ,,!! लेकर एक गुलाम,,,!   एक मरा हुआ भूत,,!,, एक पुराने डायरेक्टर का ,भूत ,! "   दें हुकुम ,,,करूँ क्या इसका ,,?? :

  गौरव सिंह ( ओझा ) --"  -भूत,,??   मरे हुए डायरेक्टर का ,,??  मैं क्या पाउँगा उस मरे हुए  भूत से ,,??   मुझको तो पेश कर एक ज़िंदा   वर्तमान डायरेक्टर   जिसके खींच सकूँ में कान ,,!"

  ( मंच पर गिरता पड़ता  पायजामा कुर्ता पहने , दुबला पतला  व्यक्ति , चश्मा लगाए आता है ,,)

   ओझा ---  ओ  हो ,,!  तो आप आ गए हृदयेश जी ,,?? मैंने तो माँगा था मसान के राजा से एक पहुंचे हुए डायरेक्टर का भूत  जो मिले मुझे वर्तमान बन कर ,,! "

  डायरेक्टर --- " मैं भूत ही हूँ  सरकार ,,!!  मैं तो हूँ इस पर सवार ,,!  सिर्फ शरीर ही  मूढ़ हृदयेश का है ,,,बाकी तो मैं ही हूँ इस पर सवार !  कितने दिनों से ,, कर रहा हूँ इसके शरीर पर राज , और पूरी कर रहा हूँ वह साध ,,,जो पूरी ना  कर सका था  शेक्सपीयर के ज़माने में ,,मंच पर ,,,थियेटरों में   ,,,,एक्टरों की बगावत के कारण ,,! "
ओझा --" -ओ  हो   ,,तो आप  हृदयेश के शरीर पर कब्ज़ा जमाये एक विदेशी    भूत हैं ,??  खूब मिले ,, आज आपने ही मुझे उस नाटक से निकाल दिया था जो आप खेलने जा रहे हैं ,,?? ,
डायरेक्टर ---" ,,,हाँ सरकार !!   मैंने ही वह गलती की थी ,,!  मुझे क्या मालूम  था की आप ओझा हैं ,, भूतों की चोटी पकड़ कर रख सकते हैं ,,,वरना मैं  ऐसी गलती कभी ना करता ,,! "
ओझा --( हँसता है )  ,,,चोटी ,,??    हाँ  लम्बी लम्बी ज़ुल्फ़ों की   चोटियों में मुझे ख़ास दिलचस्पी रही है ,,,लेकिन अफ़सोस  किसी चोटी वाली  ने मुझे कभी घास नहीं डाली !  हाय ,,,ओझा बन कर मिली भी तो क्या ,,?? ,,,,एक भूत की चोटी ,,!! (  निःश्वास लेता है )   हाय रे भाग्य ,,!!"
डायरेक्टर --" तो हुकुम दे सरकार ,,,मुझे क्यों याद फ़रमाया ,,अपने दरबार में ,,?? "
 ओझा -- " तो बता ,,!!  मुझे   क्यों निकाला तूने   उस ड्रामे से ,,क्या कमी है मुझमें ,,??  क्या मैं कलाकार नहीं ,,?? "
 डायरेक्टर --- "  हैं सरकार ,,लेकिन मुझे एक ' चोटी " के कलाकार की जरुरत थी ,और आप ,,,,!!
ओझा --"   ,,,, एक चोटी का कलाकार ,,??  क्या मतलब है तेरा ,,?? क्या मुझे चोटी रखवाना जरूरी था ,,?? ,,क्या तेरा मकसद ,, दो चोटी  वालियों  से पूरा नहीं हो रहा था ,,??
डायरेक्टर ---( दांत निकालते हुए )  ,,," नहीं हुज़ूर ,,! "  मेरा मतलब उन चोटियों से नहीं ,,जिसकी ओर  आप इशारा कर रहे हैं ,,,!"
ओझा -- " तो फिर। .?"
 डायरेक्टर --   "  मुझे ऊंचा  कलाकार   चाहिए था ,,! "
ओझा ---"   वाह  रे डायरेक्टर ,,!!  कलाजगत में भी ऊंच  नीच  ,,??,,,यानी ऊंचा कलाकार ,,,नीचा कलाकार ,,!!,,,अगड़ा कलाकार  पिछड़ा कलाकार ,, तरक्की की और बढ़ता कलाकार ,,तरक्की से ,घटता कलाकार ,,!!  क्या बक रहा है तू ,,?? "
डायरेक्टर -- " बक नहीं रहा हूँ हुज़ूर ,,!  यही सच है !आज पूरा कला जगत इन्ही वर्गों में बंटा  हुआ है ,,,, ! सभी कलाकार  ,,आज स्टार , सुपरस्टार , हीरो , करेक्टर आर्टिस्ट  और विलेन की छवि में जाने जाते हैं ! रंगमंच भी वरिष्ठ , कनिष्ठ , कलाकारों के वर्ग में बंट गया है  !  कला क्यों है , किसके लिए है ,, किसी को मालूम  नहीं है ! मालूम   है तो सिर्फ अपना  भविष्य  ,,!  यदि ऊंचा डायरेक्टर बनना  है तो ऊंचा कलाकार लेना  ही पड़ता  है !   आखिर मेरे भी  भविष्य का सवाल जो था !
ओझा -- " तो खुद को ऊंचा करने की चाह में तूने मुझे नीचा दिखाया ,,??   क्यों ,,??
 डायरेक्टर --" नहीं हुज़ूर ,,एक और भी बात थी !!"
  ओझा --- " वो क्या मरदूद ,,?? "
डायरेक्टर  -- " ( थोड़ा हड़बड़ाते हुए ) ,,," वो आप रीना के साथ ज्यादा बातें करते थे ,,! "
ओझा -- " तो उससे  तुझे  क्या ? तू तो डायरेक्टर था ,, ना की स्कूल  का हेड मास्टर   जो स्टूडेंट पर निगाह रखे ? "
  डायरेक्टर --" आखिर रीना मेरी खोज थी ,,! "
ओझा -- " क्या मतलब ,,?? तेरी खोज का क्या मतलब ,,? "
 डायरेक्टर --" उसे मैं ही खोज कर लाया था नाटकों में ,काम करने के लिए ,! इसके लिए मैंने ही मनाया था उसके बाप को ,,,वरना वह तो नाटक को नाच गाना मानता था ,,,' निकृष्ट कार्य " ,!
ओझा - " भूल गया तू ,,??  भूल गया ,,?? उसके बारे में किसे तुझे सबसे पहले  किसने बताया था ,,??  भूल गया तू की उसके घर का पता तुझे किसने दिया था ,,?? "
  डायरेक्टर --" आपने हुज़ूर  ,,! लेकिन तब वह सिर्फ आर्केस्ट्रा में गाती  थी ,, नाटक नहीं जानती थी ,!! "
ओझा -  (  व्यंग से   हँसता  हुआ ) ,, " किसने बनाया तुझे डायरेक्टर  मूढ़ ,,?? लडकियां और एक्टिंग एक ही चीज है ,,,यह   सच तुझे  नहीं मालूम  ,,??   क्या तुझे नहीं मालूम  की वह कितने ड्रामे आज तक कर चुकी है ,,??
  डायरेक्टर --" मेरा मतलब स्टेज से था हुज़ूर ,,! स्टेज पर तो उसे मैं ही लाया ! "
ओझा --" हूँ ````!!,,,और अब किस स्टेज तक पहुंचा चुका है तू उसे ,,?? "
डायरेक्टर --( चौंक कर ) ,, क्या मतलब हुज़ूर ,,?? "
ओझा ---( अट्ठास करते हुए )  हां हां हां ,, मुझे नाटक से निकाल कर तू समझता है की काँटा निकल गया ,,?? "
  डायरेक्टर -- " आप गलत समझ रहे हैं हुज़ूर ,,!  मैं वैसा डायरेक्टर नहीं ,,! "
ओझा -- " तब मेरा  रीना से बातें करने से तेरा क्या जा रहा था ? " ,,बता ,,,मुझे क्यों निकाला नाटक से ,,?? "
डायरेक्टर --" --" आप उस राही  के नाटक में भी इंट्रोड्यूस करवाना चाहते थे उसे ,,! "
ओझा -- " तो उससे तुझे क्या परेशानी थी ,,?? कलाकार किसी की बपौती तो नहीं है ,,वे कहीं भी काम कर सकते हैं ,,तू क्यों रोकना चाहता था उसे ,,??
डायरेक्टर --" -(-हकलाते हुए ) ,,,राही  मेरा राइवल है ,,? "
ओझा --" राइवल  के मायने दुश्मन ,,?? "
डायरेक्टर  --  " नहीं कम्पटीटर ,,! "
ओझा -- तो क्या कम्पटीशन खराब बात  है ,,? कम्पटीशन से तुझे क्या परेशानी ,,?? "
डायरेक्टर --" कम्पटीशन में  वो बाज़ी जीत लेता हुज़ूर तो शहर में कोई मुझे कैसे पूछता ,,? "   रीना के बिना वह नाटक कर ही नहीं सकता था ,,,उसके पास कोई   स्त्री पात्र  नहीं है ,,वह  ,, बे सहारा है ,,! " ,
  ओझा ---"  ओह ```!  तो कम्पटीशन तू ऐसे करता है की  वह कोई कर ही ना सके ,,?? "   क्यों ,,??"
  डायरेक्टर --(" फुसफुसा कर ),,," हाँ हुज़ूर यही पालटिक्स है ,,! परदे के पीछे की पॉलिटिक्स ,,! "
ओझा --( तेज स्वर में क्रोध से )   तो तू पॉलिटिक्स भी करता है ,,नाटकों में पॉलिटिक्स ,,?? "
डायरेक्टर -- " पॉलिटिक्स  तो हर जगह है  हुज़ूर ,,??  कुछ लोग तो नाटक ही  पॉलिटिक्स के लिए करते हैं ,,,कहने को नाटक है ,,,लेकिन है वह शुद्ध पॉलिटिक्स ,,! "
ओझा ---" मसलन ,,?? "
डायरेक्टर ---" मसलन ,,,,मसलन अब क्या बताऊँ ,,!
 ( तभी जैसे नेपथ्य  से आती आवाजें सुनता है ,,) कान लगा कर ) ,,,(  स्वतः )  ,,," अरे यह दत्ता यहां क्यों आ रहा है ,,? " ,(,,चुप हो जाता है )
ओझा -- ( चिल्ला कर )  चुप क्यों हो गया ,,,?? जबाब दे ,,?? "
डायरेक्टर ( फुसफुसाते स्वर में ) ,," हुज़ूर वो दत्ता आरहा है ,,, मेरा एक और  राइवल ,,! मुझे यहां पा कर ना जाने क्या सोचेगा ,,! रयूमर उड़ाएगा ,,! "
ओझा  ---"( आँख सिकोड़ कर ) ,, ,,??  रयूमर ,,??   दत्ता ,,?? "  ये सब क्या कह रहा है तू ,,"" ?
डायरेक्टर--- " हाँ सरकार रयूमर ,,! ये दत्ता रयूमर उडाने  में माहिर है  यह नुक्कड़ करता है ,,! "
ओझा ----" अब नुक्क्ड़ क्या चीज है ,,? "
डायरेक्टर --" नुक्कड़ नाटक है  हुज़ूर ,,! अब मुझे छोड़ दीजिये ,,मैं इसके सामने नहीं पड़ना  चाहता ,, चाहे तो आप मुझे फिर पकड़वा लीजियेगा ,,, मैं हाज़िर हो जाऊंगा ,,! "
ओझा ---" अरे नहीं ,,,! फैसला तो आज ही करूंगा ,,! भूतों की कचहरी लगवाउँगा   तू चाहता है तो  अभी मैं कुछ इलाज किये  देता हूँ ,,,जब तक यह यहां  रहेगा हम इसे देखते रहेंगे लेकिन यह हमें नहीं देख पायेगा  ,! "
  डायरेक्टर --" जल्दी कीजिये हुज़ूर ,,वह आ गया ,! "
      (
 ओझा हाथ में धूल उठा कर  फेंकता है ,, मंच के उस हिस्से का प्रकाश जहाँ ये दोनों खड़े हैं बहुत मद्धिम हो जाता है  बाकी मंच प्रकाशित रहता है ),

      ( दत्ता दो लड़कों के साथ आता है   सबके कन्धों पर थैले लटके हैं ,,,जिन में कागज़ वगैरह भरे हैं )

 ( एक लड़का ) राजीव ---,,," देखा दादा ,,!!  है ना वैसी ही जगह  जैसी आप चाहते थे ,  एकांत ,,?? "
    दत्ता ---" हाँ राजीव ,,! अच्छी जगह है   और रोड से अधिक हटकर भी नहीं है ,,! "
   (  दूसरा लड़का )  प्रसून ----" अब इस जगह आराम से रिहर्सल  हो सकती है   और किसी को कानो कान खबर भी नहीं होगी ,,! "
  राजीव --- "  एक बात तो है दादा ,,,! तहलका मच जाएगा   जब ' रचना ग्रुप ' को मालूम  होगा ,,,रातों रात नाटक तैयार हो गया ,,,कब और कैसे ,,,वे लोग  जान ही नहीं पाएंगे ,,! '
    दत्ता -- --  ( गंभीरता से ) -" हूँ ,,,,```!`` "
    प्रसून --( एक पत्थर को हाथ से  झाडते  हुए ) ,,, " दादा ,,आप यहाँ बैठो   इस पत्थर पर हम नीचे बैठ जाते हैं ,,! "
 दत्ता ---"  अरे नहीं ,,नहीं ,, मैं पत्थर पर क्यों ,,??   नहीं प्रसून हम सब बराबर हैं ,, हम सब एक साथ ही बैठेंगे जमीन पर ,,!"
 ( राजीव  सबके साथ बैठ जाता है  )
  राजीव --" ,,दादा ,,!  प्रसून एक बार झटका खा चुका है ,,! "
 दत्ता _  " कैसे ?? "
राजीव ---"पहले  जब प्रसून हृदयेश के यहाँ रिहर्सल  में शामिल हुआ था  तब ,,"
  दत्ता  ---  " कैसे प्रसून ,,,कैसे ,,?? "
प्रसून ---" अरे वो मेरी कोई गलती नहीं थी ,,,  मैं नया नया था ,,! "
राजीव ---- " मैं बताता हूँ ,,! दादा ,,, प्रसून धोखे से उस कुर्सी पर बैठ गया जिस पर हृदयेश बैठते थे ,,! डायरेक्टर की कुर्सी पर ,,!  बस  हृदयेश गरम हो गए ,,! "
 प्रसून ---" अरे वे तो कुछ नहीं  बोले ,,, उनके चमचे गौरव ने तो आगे बढ़ कर  हाथ झटक कर मुझे नीचे उतार दिया !
राजीव ---" गौरव ने ,,?? उसकी ये मज़ाल ,,?? "
दत्ता ---" अरे कोई कुर्सी पर बैठने से ही डायरेक्टर हो जाता है   क्या "" ??   हृदयेश को  खुद भी  अभी आता ही क्या है ,,? मैं पूछता हूँ कौन जानता है नाटकों की दुनिया में  हृदयेश को   ? "
प्रसून --" दादा ,,,! आपके  पैर  की तो धूल भी नहीं है वह ,,! "
दत्ता --- " अरे दिल्ली में ,,, प्रलयेश जी ने ,, बहुत रोका ,,,कहा की क्या करेगा  जा कर ,वापिस ,  चल मुंबई ,,,,तुझे अनिमेष जी से मिलवा देता हूँ ,,  तू जल्दी ही चमक जाएगा   लेकिन मैंने कहा ,,,नहीं ,,,मैं तो वहीं उन लोगों के बीच काम करूंगा जहां मेरे लोग हैं  जिन्हे  मेरी जरुरत है ,,! "
प्रसून ---" और वह जबलपुर अधिवेशन में भी तो गए थे आप ,,? "
 दत्ता --- " हाँ बहुत लोग आये थे वहां ,,कह रहे थे वर्कशाप कर  डालो ,,! हम आ जाएंगे ,,,लेकिन ,,!
 राजीव --- "  लेकिन क्या दादा ,,??   कर लीजिये ना एक वर्कशाप ,, देखियेगा हृदयेश के सब  आर्टिस्ट  टूट कर इधर ना आजायें तो कहियेगा ,,! "
प्रसून ---"   हाँ दादा ,,!  कर  लीजिये एक वर्कशाप ,,! कल यूनिवर्सिटी गया था तो सर भी कह रहे थे  की तुम लोग वर्कशाप करो ,,, तो ग्रांट में दिला दूंगा ! "
दत्ता --- "  सर तो कहते कुछ हैं ,,,करते कुछ ,,!! मैंने पिछली बार तुम्हे सचिव बनवाने की कोशिश की तो उन्होंने राजेश को सचिव बनवा   दिया ! " ,,,,कहने लगे ,,,प्रसून जूनियर है अभी ,," ,,!
प्रसून ---( रुआंसा हो कर )  हम कब तक जूनियर ही रहेंगे  दादा ,,??  सीनियर जो काम नहीं कर पाते   वो हम सब कर देते हैं   दरी बिछाने से नुक्कड़ों पर नाचने तक ,,! ,,, कभी हम  कहते हैं की हमारी क्या स्टेटस है ,,? "
राजीव ---"   प्रसून ठीक कह रहा है दादा ,,! प्रसून के पापा को किसी ने एक बार कह दिया था की आपका लड़का पढ़ता लिखता नहीं है   नुक्कड़ पर भिखारी बना नाटक कर रहा है   तो उन्होंने प्रसून को खूब डांटा ,,! "
दत्ता ---"  वो,,,,'  राजा - भिश्ती -  और सरकार ' वाले  नुक्कड़  में ,,?? "
प्रसून ---हाँ दादा ,,!  वो क्या हुआ  की रजनी कार से वहीं से निकल  रही  थी उसने मुझे भिखारी बने देख लिया था ! "
दत्ता ---"  ये रजनी कौन ,,?? "
 प्रसून ---" वो मेरे पड़ोस में ही रहती है ,,, पी डब्लू डी  के  एस ई साहब की लड़की ! "

 राजीव ---"  अरे सीधे क्यों नहीं बताता है की तेरी फेयॉन्सी ,,,दादा से  क्यों शर्माता है ,,?? "
दत्ता ( हँसते हुए ) ----"  अरे फियांसे ,,?  तो क्या हुआ ,,तू  डर  गया क्या ,,?    क्या सोचता है की वह तुझसे दूर हो जाएगी ,,?? "
प्रसून --- "  नहीं दादा ,,!    सचमुच अब वह कतराने लगी है ,,! मिली थी तो कह रही थी ,,---तुम अब भिखारी मत बनना  ,,! मेरी सहेलियां मुझे चिढ़ा रही हैं ! "
दत्ता ---(  गंभीरता से ) ,,," देखो प्रसून ,,,,यह कला है ,,,सच्चा कलाकार किसी भी रोल से नहीं डरता है ,, अब देखो इस नए नुक्कड़ में  जो रोल मैं तुम्हे देने जा रहा हूँ  वह एक  '  कोढ़ी  '  का है ,,! "
 प्रसून ---"  ( थूक गटकते हुए ) ,,, कोढ़ी का ,,???? दादा ,,,यह रोल आप राजीव को नहीं दे सकते क्या ,,?? "
राजीव----"  क्यों तुम्हे क्या तकलीफ है    इस रोल में  ,,? "
प्रसून ---" नहीं अब मैं कुछ और करना चाहता हूँ ,,!  ,,, कोढ़ी का रोल मुझसे बनेगा नहीं ,,! "
राजीव ---   "  वो तू छोड़ प्रसून ,,! दादा तो मिटटी के पुतले से भी शानदार रोल करवा लेते हैं ,,फिर तू तो टीम का माना हुआ आर्टिस्ट है ,,! "
प्रसून --- " नहीं दादा !  मैं अभी से कहे देता हूँ ,,! यह रोल मैं  नहीं करूंगा   ,,,, मुझे आप कोई भी दूसरा रोल दे दें ! "
दत्ता ---" तुम लोगों में यही कमी है ,,! तुम लोग कला के लिए अभी भी पूरी  तरह समर्पित नहीं हुए हो ,,!   ,,, अब मुझे देखो ,,! ,,, आज प्रयलेश मुझे मानते हैं ,,, तो जानते हो क्यों ,,?? ,,   एक नुक्कड़ में उन्होंने मुझे सपेरे का रोल दिया ,, जिसे सांप काट लेता है ,,,तो मैं दिल्ली की गंदी बस्ती में वहीं लोट गया ,,,ना पानी देखी ना धूल ,,!

     ( अचानक नेपथ्य में  एक भूत  की आवाज़ ,,,नाक के स्वर में ,,," बहुत खूब ,,बहुत खूब ,," ,,)

   राजीव ---(-चौंक कर )---" यहां कोई और भी है क्या ,,? "
  दत्ता --- " यहां और कौन होगा ,,?? भ्रम है ,,! "

   प्रसून --- ( मनुहार के स्वर में ) ,,"   दादा ,,!!  इस बार हम लोग थियेटर ना कर लें ,,? "
 राजीव ---"  हृदयेश के पास रह कर इसकी थियेटर की भूख नहीं गयी  दादा ,,! "
  दत्ता --"   थियेटर में क्या रखा है ,,?   जगमगाती लाइट  ,,रंगीन परदे ,,स्पॉट ,,,  डिमर ,,,  म्यूजिक ,, ड्रेस ,, मेकअप ,,,,,,इन सबके बीच  कहाँ है  निर्देशक  ,,??    अरे यही देखना है तो फिल्म देख लो  ,,क्या जरुरत है नाटक की ,,? नाटक तो सर्वहारा के लिए  होना चाहिए   ना की चमचमाती कार , स्कूटर पर चढ़ कर थियेटर में देखने आने वाले  लोगों के   मनोरंजन  के लिए ! "
प्रसून ---" लेकिन हृदयेश तो कहते थे ,,,,,"
 दत्ता ----"  क्या कहते थे हृदयेश ,,?? यही की नुक्कड़ बेकार है ,,?  नुक्कड़ तो भुक्कड़ करते हैं   ,,,जिनके पास थियेटर का किराया , लाइट वगैरह का पैसा देने को नहीं होता ,,,वही ना ,,?   और जो ग्लेमर थियेटर में है वह नुक्कड़ में कहाँ ,,,??  उन्होंने कहा और तुम मान गए ,,? "
राजीव ---" नहीं दादा ,,!   प्रसून समझदार है ,, वह सचाई जानता था ,,, ! "
  दत्ता --"  हृदयेश तो नाटकों के नाम पर  अपने लिए  पैसा और  वाहवाही  बटोरते हैं ,, हम लोग ना पैसा खर्च करते हैं ,,,ना कमाते हैं ,,! हम नाटक करते हैं   तो आम लोगों के लिए ,, उन्हें जगाने के लिए !  हम मेसेज देते है ,, , ,,, संघर्ष करने के लिए ,,व्यवस्था बदलने के लिए ,,! "
प्रसून ---"  हृदयेश कह रहे थे की मेसेज तो  थियेटर में भी  होता  हैं ,,! "
दत्ता ---"    लेकिन     वह किसके काम   आएगा  ,,? लोग सिर्फ इंटरटेनमेंट करने   आएंगे ,, ,, और घर जा कर सो जाएंगे   इधर तो हमारे नुक्कड़ों से लोग शिक्षा लेते हैं ,, उनमे जोश आता है ,,,जागरूकता आती है ,, वे  व्यवस्था के दोष जानते हैं ,, और उनमे संघर्ष की इच्छा जागती है    जो जरूरी है ,,! आखिर नाटक की कोई सामाजिक वजह भी तो होनी चाहिए ,,?? "
राजीव ---" हाँ  यही बात सर भी कहते हैं ,,! "
दत्ता --- "  बिलकुल नाटक में वह ताकत है की मुर्दे भी जाग जाएँ ,, चिल्लाने लगे इंकलाब ज़िंदा बाद ,,,! "

   (  तभी नेपथ्य से कई भूतों के समवेत स्वर सुनाई देते है ,,, नाक के स्वर में ,,,' इंकलाब ज़िंदाबाद ,,,इंकलाब ज़िंदाबाद ,,'    ही ही ही ही ही!!!!!  )
राजीव  (  चौंकते हुए ) ,,,"  दादा ,,!  यहां कोई है जरूर ,, ! "
दत्ता --- " मुझे तो कुछ नहीं दीखता ,,! "
प्रसून ---( डरते हुए,,,उठते हुए  ) ---"  दादा ,,आज माफ़ करें ,,,पापा दौरे से लौटने वाले हैं   मुझे जल्दी घर जाना है ! "
राजीव ---"   हाँ दादा ,,!   और अब शाम हो गयी है   अन्धेरा  छा  रहा है ,,, यहां पास में ही एक कब्रिस्तान है   यहां इस समय के बाद यहां कोई नहीं ठहरता ,,! "
दत्ता --" ( उठते हुए )  " तो ठीक है ,,! अब यह जगह आगे रिहर्सल के लिए तय ,,!  हम लोग रोज पांच बजे यहीं मिलेंगे  ,,ठीक ,,, !

    ( नेपथ्य में भूतों की आवाजें ---' एक नुक्कड़ यहां भी कर लो ,,हमने बहुत दिनों से नाटक नहीं देखा है ,,,ही,,,ही,,,ही,,,ही,,,ही,,,!! " )
राजीव  ( घबरा कर ) ,,,अब चलिए दादा ,, ! "
    ( दत्ता , राजीव जाने लगते हैं ,,पीछे पीछे प्रसून )
 प्रसून ,,," दादा लेकिन एक बार थोड़ा सोच लीजियेगा  ,,,अगर कोढ़ी वाला  रोल राजीव को दे दें  तो ,,,,,!
  (  सब मंच से बाहर निकल जाते हैं )

 ( रोशनी बढ़ती है ,,,मंच के दूसरे कोने में खड़े ओझा ,,और डायरेक्टर दिखते हैं ,,  ओझा घूरता हुआ खड़ा है  वह दत्ता प्रसून , और राजीव को जाते हुए देख रहा है   फिर  मुड़  कर )

   ओझा ---" अरे कहाँ गए मरदूद ,,!  औ  मसान के भूत !! ,,,क्या भाग गया तेरा कैदी ,,"?
  मसान का भूत  -- ( नेपथ्य से ) ," ,यही हूँ हुज़ूर ,,, अभी आपने इजाजत ही कहाँ दी थी   मैं इसे पकडे बैठा हूँ ,,  अपनी गिरफ्त में ,,! "

   डायरेक्टर आगे आता है ,,,

   ओझा ----,,,,,,"    हूँ,,,,,,  तो तू बता रहा था पॉलिटिक्स के बारे में ,, पॉलिटिक्स जो नाटकों में होती है ,,,बता कहाँ है पॉलिटिक्स ,,?? "
   डायरेक्टर ---" पॉलिटिक्स तो दूध में पानी की तरह मिली   रहती  है ,, लेकिन दिखती नहीं ! ,,,हाँ जांच करने पर  पकड़ी जा सकती है ! "
  ओझा --- "  अच्छा तो बता ,,, ये नाटक भी अब नुक्कड़ों पर क्यों होने लगे ,,? हमारे जमाने में तो ऐसा नहीं होता था ! "
  डायरेक्टर --- " यह हिन्दुस्तान है हुज़ूर ,,,यहां नाटक ही होता है ,,,रोज नाटक ,, ! औरतें ,, पत्नी  का नाटक करती हैं ,  आदमी पति का ,,अफसर साहब का ,, बाबू चमचे का ,, नेता सेवक का ,,, सब नाटक करते हैं ,, सिर्फ नाटक नहीं जानती है तो जनता ,, वो सिर्फ नाटक देखती है ! "
  ओझा --- " वो तो ठीक ,,!  लेकिन नुक्कड़ पर नाटक की क्या जरुरत है ,,?  क्या तू भी करता है नुक्कड़ पर नाटक ,?? "
डायरेक्टर --- मैं तो नहीं ,,,पर इन को दिखाने के लिए मेरे चेले कर देते हैं कभी कभी   एकाध  नुक्कड़ ,,! "
 ओझा --- "  तो बता क्यों करवाता है तू नुक्कड़ नाटक ,,?  वहां नाटक की क्या जरुरत है ,,?  वहां तो खुदबखुद   कुछ ना कुछ रोज ही होता रहता है  नाटक जैसा ,,,,फिर तू क्यों  खेलवाता है नाटक वहां ,,? '
डायरेक्टर -- " अब क्या करें ,, ? थियेटर के किराए बढ़ गए हैं ,,  , मेकअप , लाइट  साउंड  में पैसा लगता है ! कुर्सी का किराया लगता है ! यहां तक की मुख्य अतिथि जुगाड़ने , उनका सम्मान करने में भी अलग से पैसा खर्च हो जाता है !    मेरे चेले कहते  हैं की कुछ तो करो हृदयेश भाई ,,,,हम खाली बैठे हैं ,,, दूसरे लोग नाटक कर रहे हैं ,,,तो उनकी तसल्ली के लिए कर देता हूँ नाटक  ,,कभी कभी नुक्कड़ों पर भी ,,! "
ओझा ---" तो इसका  क्या  मतलब,,,,,?    तू नाटक से गलियों के तमाशे पर उतर आएगा ,,??  क्या तुझे नाटक और तमाशे के फर्क का भी शऊर नहीं ,,?? "
डायरेक्टर -- " तमाशा भी तो नाटक ही है हज़ूर ,,!  तमाशे  में दर्शकों को जुटाने की जरुरत  भी  नहीं ,,!   वे अपना काम छोड़ कर  आ  जाते हैं    तमाशा देखने ,,! "
ओझा --" तो फिर नाटक की नज़ाकत का क्या होगा ,,??  क्या शेक्सपीयर के नाटक भी  नुक्कड़ पर होंगे ,, रोमियो जूलियट   सडकों पर प्रेमा लाप करेंगे ,,?? कालिदास की शकुंतला   नुक्कड़ों पर फूल चुनेगी ,,? "
डायरेक्टर --" नहीं हुजूर ,,!  इसीलिये तो मैंने अर्ज़ किया  की नुक्कड़  पर  नाटक नहीं  ख़ास नाटक ही चलते हैं   जिसमें पॉलिटिक्स की चाशनी हो ,,! "
ओझा --" और कला ,,??  '  वह कैसे ज़ाहिर होगी  नुकडों पर ,,?? "
डायरेक्टर --" कला नुक्कड़ों पर नहीं होती ,,! वह तो होती है शीतल कमरों में बैठ कर नुक्कड़ गढ़ने में !  कला नाटकों में घुली रहती है ,, लोगों को अपने रंग में रंगने की कला ! अपने विचारों को उन पर चस्पां करने की कला !  और सच बताऊँ हुजूर की यही चतुराई है ,,यही कला है ,,,और यही पॉलिटिक्स है ! "
  ओझा ---" तो,,,इस्सलिये तूने  मुझे अपने नाटक से निकाला , इसीलिये  कहता  है की मैं ऊंचा कलाकार नहीं ,? "
  डायरेक्टर --" मुझे माफ़ करदें  हुजूर  मैं आपको फिर रख लूंगा   एक मौका दें ,,! "
ओझा ---(  जोर से अट्ठास के साथ ) --" हां,,हां,,हां,, तू मुझे नहीं पहचान रहा है बेवकूफ ,,, !  मैं ओझा हूँ ,,कोई कलाकार नहीं ,,  मुझे तू क्या मौका देगा ,,? "
 डायरेक्टर --" मैं राइटर से एक नया नाटक लिखवा लूंगा हुजूर ,,! ,,," दा   ग्रेट ओझा " ,,,उसमे आपको मौका दूंगा  ओझा की एक्टिंग का ,,नाटक अन्धविश्वाशों पर आधारित होगा  ,, अंधविश्वासों को  उजागर करेगा ! वह तरक्की की हिमायती करेगा ,,,! आम के आम गुठलियों के दाम ' ,,!
ओझा ---"  यानी तू नाटकों के जरिये मेरा मखौल उड़ाएगा ,, मेरी छीछालेदर  करेगा  मुझे जलील करेगा ,,? ,,और खुद को तरक्की पसंद ज़ाहिर करेगा ,,वाहवाही लूटेगा ,,क्यों ,,? "
डायरेक्टर --- " वक्त का तकाजा है हुजूर ,,,अब झाड़ फूंक पर से सबका विश्वाश उठ गया है ! सब जान गए है की ओझा क्या चीज है ,,! कबीले ख़त्म हो गए हैं ! अब ओझा की जगह डाक्टर हैं ,, आज के ओझा ,,! ज़माना बदल गया है हुजूर ,,, आपका ज़माना हवा हो गया ! "
 ओझा ---" लेकिन तू यह भूल  तू एक भूत  है  और मैं ओझा ,,! भूत  को ओझा ही झाड़ते हैं ,,डाक्टर नहीं ,,! मैं अभी तुझे तेरी औकात दिखाता हूँ ,,! "    ( हवा में हाथ उठाता है )
डायरेक्टर -- " नहीं हुजूर माफ़ करें ,,,मैं कोई और सब्जेक्ट ले लूंगा ,,! स्त्री शशक्तिकरण , साक्षरता ,  स्वच्छता , ,, एक से बढ़ कर एक टॉपिक हैं ,,मैं उस पर राइटर से एक नया नाटक लिखवा लूंगा   ! मुझे बख्श दें ,,,मैं फिर शान में गुस्ताखी नहीं करूंगा ! "
ओझा --"  तेरा राइटर ना हुआ ,,, जैसे कोई टाइप राइटर हो गया !,, और  तू जो चाहेगा वह लिख देगा ,,!  पहले सब्जेक्ट , फिर रेफरेंस ,  और अंत में  योर  सिन्सरियाली ,फैथ्फुली ! ,, !
डायरेक्टर --- " राइटर ऐसी ही चीज है हुजूर !  कई आत्माएं जिनका लिखा कभी  छप  नहीं सका था ,, आज के नौजवानो पर काबिज है !    उस ज़माने में उस  समय  उनकी कोई  डिमांड नहीं थी ,,,इसलिए अब वे डिमांड पर   लिख रहे  हैं ! "
ओझा --"  ठहर जा मरदूद ,,!   मैं देखता हूँ तेरे उन खटारा टाइपराइटरों  के भूतों को  ,, तू तो छोड़ इस हृदयेश   के चोले को   ,,,और  लटक जा  उस पीपल के पेड़ पर ,,! ,,,  छोड़ इसे ,,,नहीं तो गाड़ दूंगा  हमेशा के लिए ,,! "
डायरेक्टर -- "(  घिघयाते हुए ) ,,,, मेरी गलती माफ़ कर दें सरकार ,,,मुझे जाने दें ,, मैं अब किसी आर्टिस्ट से पंगा नहीं लूंगा ,,,किसी को ड्रामे से   निकालने की हिमाकत नहीं  करूंगा  ! "
ओझा --- "  हिमाकत तो तू तब करेगा जब तुझे मैं कोई मौका देने दूंगा ! तेरे जैसा पुराना भूत  तो फिर नए चोले  बदल लेगा ! पहचान में भी नहीं आएगा !  नाटक में नुक्कड़ और नुक्कड़ में  तमाशे  का कॉकटेल बनाता रहेगा !  बाद में ना बचेगा नाटक , ना नुक्कड़ , ना तमाशा !   इसलिए तू छोड़ इस हृदयेश को ,, मुक्त कर इसे ,  और लटक जा उस पीपल पर  फ़ौरन ,,! "
डायरेक्टर ---( अचानक भयानक आवाज़ बदल कर  धमकी देते हुए  ) ,," ,,मैं नहीं छोडूंगा इसे   ओझे  ,,!   मैं सदा इस पर सवार  रहूंगा यह मेरा शिकार है ,,इसे मैं अपने साथ ले कर जाऊंगा ! "
ओझा --- " ,,अरे निक्कम्मे ,,!  तू तो क्या ,,, तेरा बाप भी छोड़ेगा इसे ,, क्यों इसकी ज़िंदगी खराब कर रहा है ,,इसके भी बाल बच्चे हैं ,, तेरे कारण घरबार छोड़ कर सिर्फ नाटक कर रहा है ,, बे मतलब नाटक ,,!   इसके घर के सदस्यों का भी तो ख़याल कर ,,, यह उनकी और ध्यान भी नहीं दे पा रहा है ! "
डायरेक्टर ---"   मुझे किसी से कोई मतलब नहीं है ,, मेरी खुराक तो नाटक है ,,,नाटक  खाता  हूँ  ,!, नाटक पीता  हूँ,,,   सिर्फ नाटक और नाटक ,  इसके सिवा कुछ नहीं , इसे छोड़ दूंगा तो कहाँ से पाउँगा अपनी खुराक ,,?? "
  ओझा --- ( हाथ में धूल उठाते हुए ) ,,,तो ले यह खुराक ,,,मैं तुझे गाड़े देता हूँ !
डायरेक्टर --- ( चीखते हुए ) अरे अरे ,,! ऐसा ना करना हुजूर ,,, मैं इसे छोड़े देता हूँ ,,,लेकिन मेरे छोड़ने पर भी नाटक    तो होते ही रहेंगे  ,,,!   जब तक राइटर का भूत   ज़िंदा है   आप क्या कर लेंगे ,,? "
ओझा ---:" तू लटक  पीपल पर ,,! और देख की मैं क्या इलाज करता हूँ राइटर के  भूत  का ,,! "
डायरेक्टर _ "  ( रुंधे स्वर में ) .." ठीक है मैं इसे छोड़ कर लटक जाता हूँ पीपल पर   लेकिन राइटर से निबटना आसान नहीं है हुजूर ! "

    (  घर्घरा  कर डायरेक्टर गिर जाता है )
( ओझा दूसरी दिशा  में मुड़  कर बोलता है )
ओझा ---"  अरे ओ  मसान के भूत ,,,पकड़ ला राइटर के बच्चे को ! "
 मसान का भूत ,,(  नेपथ्य से ) ,," कबसे पकड़ के  रखा  हूँ   सरकार   इसे !   मैं जानता था   आप यही हुकुम करेंगे   इसलिए पहले से ही पकडे बैठा हूँ ! "
ओझा ---" आगे कर  आगे कर ,,,लाइट में आने दे उसे ,,! "
(  एक बड़े दांत वाला ,,लम्बे बाल रखाये   दुबला पतला  चश्मा लगाए ,, व्यक्ति  आगे आता है )
 राइटर --- "  मैं तो कबसे लाइट में आने को ही तरस रहा हूँ,,,माननीय  ओझा जी !   मुझे लाइट में ला दें   तो आजीवन गुलाम रहूंगा ! "
ओझा --- "  क्या तुझे अभी तक कोई ऐसा   ग्रुप या गॉड फादर  नहीं मिला   जो तुझे  लाइट में ला देता ,,? " ,,,मेरे ही नाम को रोने के लिए बचा था तूँ ,,? "
राइटर --" मैं थोड़ा थोड़ा  सभी  ग्रुप में रहा ! सब ने मुझे निकाल दिया ! मेरी रचनाएं चुरा कर खुद अपनी किताबें छपवा लीं !  मैं इसी तरह भटकता रहा ,,,एक भूत की तरह ,,! "
ओझा --- "  अच्छा ,,तो तू भूत नहीं ज़िंदा है ,,? "
ओझा --- " मैं " सेमी भूत ",,हूँ   दिमाग से ज़िंदा ,,, शरीर से मरा ,,!  और अभी ज़िंदा ही रहूंगा जब तक मुझे कोई राष्ट्रीय पुरूस्कार  नहीं मिलता ,   अभिनन्दन   नहीं होता ,, मैं कैसे मर सकता हूँ ,,"
ओझा --- '  ओह ??? तो तुझे लिखने का चस्का कैसे लगा ? ,"
राइटर --- "   बस    यौ  ही ,,, !  प्रोफ़ेसर था  यूनिवर्सिटी में अक्सर हड़ताल रहती थी ,, क्लासेस महीनो नहीं लगती थी ,,, खाली बैठा था ,, मेरे दिमाग ने कहा -- ' कुछ लिख ज्ञान प्रकाश ',,   और में लिखने लगा ! ,,
ओझा -- " अच्छा तो  क्या क्या लिख डाला अभी तक ,,? "
राइटर --" मत पूछिए सरकार ,,!  पैंतीस नाटक ,  अस्सी  कहानियां ,, बारह  रेडियो  आपेरा ,  आठ नुक्कड़ , कई रूपांतर ,  और अनेखों अखबारी लेख ,,! "
ओझा --"  ( चीख कर ) ,,क्यों लिखे   क्यों लिखे तूने इतने  आर्टिकल ,, ?  क्या तेरा हाथ दर्द नहीं दिया ,,? "
राइटर --- "  मेरा तो कुछ भी दर्द नहीं दिया ,,, हाँ ,,,जिसे मैंने रचना पढ़ने को दी ,,उसका  सर  जरूर दर्द किया   ,,! "
 ओझा --- "  क्यों हुआ उन्हें सर दर्द ,,? "
राइटर ---"  साहित्य में मेरे अभिनव प्रयोगों के कारण ,,,मैं प्रयोगधर्मी जो था ,,! "
ओझा -- "  कैसे प्रयोग,,? "
 राइटर -- अब क्या बताऊँ ,,,मैंने नाटकों में   नौटंकी डाली , नौटंकी में तमाशा मिलाया ,, , तमाशे में लावणी , लावणी में लोक गीत ,   लोकगीतों में  नयी  कविता ,,,नई  कविता में ,,,,
 ओझा --- "  बस बस ,,,! अब तो मेरा भी सर दर्द  से फटने लगा !   अरे ओ   अतिज्ञानी ,,  तूने ऐसा क्यों किया ,,, अलग अलग विधाओं के तो अलग अलग रस   होते  है   अलग अलग स्वाद ,,,,तूने इनकी खिचड़ी क्यों पका दी ,,? "
राइटर --- "  यह मेरा दायित्व था ,,!   लेखकीय धर्म था !  भला मैं कैसे चुप बैठता ,,  कुछ अलग हट  कर  लिखना था मुझे ,,,और फिर समय की भी  डिमांड थी  ,,, साहित्य बिना प्रयोगों के अधूरा  था ,,! "
ओझा --- " तो क्या हुआ तुझे हासिल ,,?  हुआ तेरा अभिनन्दन ,,? मिला तुझे कोई पुरस्कार ,,?   बनी कोई रचना पुरस्कार के योग्य ,,? '
  राइटर --- " मुझे तो मेरी सारी रचनाएँ पुरस्कार के योग्य लगी !  अभिनन्दन  के लायक !  लेकिन उन लोगों ने कहा ,,,अभिननंदन का खर्चा उठाओ ,,,हम करवा देंगे अभिनन्दन ,,! "
ओझा -- " किन लोगों ने कहा यह ,,? "
 राइटर --- " मेरे दोस्तों ने ,,,उन ग्रुपों ने  जसमे में शामिल हुआ   लेकिन मेरे पास खर्चा नहीं था इसलिए मैं बस लिखता गया   लिखता गया   एक के बाद एक रचना   ताकि मैं अमर हो जाऊं ,,   दुनिया मुझे याद करे की था कोई  लेखक ! "
ओझा --- " अरे ओ   टाइपराइटर ,,!  क्या तू नहीं जानता  की एक ही रचना बहुत होती है  किसी लेखक को अमर करने के लिए !  महाभारत , रामायण , कादम्बरी ,  अभिज्ञानशाकुंतलम , रोमियो जूलियट , क्या काफी नहीं हुए एक लेखक को अमर करने के लिए !    फिर तू क्यों लगा रहा   लगातार इस मानसिक प्रजनन में ,,? "
डायरेक्टर --  नेपथ्य से (  दूर से चिल्ला कर ) ,, " यही है दुष्ट हुजूर ,,! यही लिखता है    और मुझे मजबूर करता है  फिर नाटक खेलने के लिए ! "
राइटर ,,,---( मुड़कर  नेपथ्य में देखता हुआ डायरेक्टर से लड़ते हुए ) ,,"   अच्छा ,,?  मैंने कब कहा की तुम खेलो ,,?   उलटे तुम ही मुझसे डिमांड करते रहे की अब इस पर लिख दो ,, अब उस पर लिख दो ,,,मुझे रेडियो कांट्रेक्ट मिल रहे हैं ,,! "
ओझा --- "  और तूने लिख दिए ,,,?  तू राइटर था की जो मांगोगे वही मिलेगा की इश्तहारी अंगूठी ,,? "

 (    नेपथ्य में   एक बहुत की हंसी ,,,ही,,ही,,ही,,ही,,  हां,,हां,,हां,,)
ओझा -  " ये कौन हंस रहा है ,,? "
नेपथ्य से --- "  कोई नहीं सरकार   मैं हु  मसान का भूत ,,, आज आपने अच्छी कचहरी लगवाई ,,
ओझा --- " क्या तुम अकेले ही बैठे हो मसानी भूत इस   अदालती कार्यवाही मैं ,,? '
मसानी भूत --- :"  नहीं सरकार ,,,इधर उधर से घूमते कई भूत यहां आकर बैठते जा रहे हैं    अब आप हुकुम देंगे तो  मुझे ढूंढने के लिए कहीं बाहर ना जाना पडेगा   सब यही मिल जाएंगे ,,"
ओझा --- " बहुत अच्छे मसानी भूत  ,,सब पर नजर रखो ,,, कोई भागे नहीं ,,! "
लेखक --- " तो क्या मैं अब बरी  हुआ ,,? "
ओझा --- " अभी तो तुझे बहुत जबाब देने हैं ,,,दुष्ट तू बोलता जा ,, "
 राइटर -- "  मैं क्या बोलूं ,,? कहें तो  मैं लिख देता हूँ मुकदमो पर एक नाटक ,, " अन्यायी ओझा का न्याय " ,,! "
ओझा --- "   नहीं ,,,,,लिख ,, एक अवसरवादी लेखक की मौत "
 राइटर -- "  मैं कहाँ ज़िंदा हूँ ,,,?   मैं तो समझो  कब का मर चुका !  जब से मैंने डिमांड पर लिखा !  उसी दिन से  एक लेखक से एक भूत बन गया !,"
ओझा --- "  तो आखिर तेरे आर्टिकलों का क्या हुआ ,,? '
राइटर --- "  मेरी कई रचनाओं की ह्त्या तो इसी डायरेक्टर ने की !   मैंने लिखा कुछ और ये खेला कुछ ,,,ना यह मुझे समझा ,,,ना मैं इसे ,,! "
डायरेक्टर ( नेपथ्य से दूर से चीखते हुए ) ,,, "  यह लिखता ही ऐसा था   मुझे क्लाइमेक्स बदलने पड़ते थे ,,! "
राइटर। .( लड़ते हुए ) ,,तू तो मेरा नाटक ही बदल देता था   स्त्री पात्र नहीं मिली  तो उसका हिस्सा काट दिया ,,!    बूढ़ा पात्र नहीं मिला तो ,,जवान लड़कों को रुई की दाढ़ी लगा कर  बूढ़ा दिखाया !,,,बूढ़ों को मेकअप करके जवान ,,!   मेरे पात्र मखौल बन कर रह गए ,,!
डायरेक्टर  ( नेपथ्य से ) ,,"  मैं मज़बूर था   स्थिति ही वैसी थी   आर्टिस्ट नहीं थे ,,,नाटक की डिमांड थी ,,! "
ओझा ---( डपट कर ) ,," चुप कर बदमाश ,,!   तू डिमांड पर खेलता रहा ,,,यह डिमांड पर लिखता रहा ,,,तुम लोग पेशा कर रहे थे   या कला की सेवा ,,? '
(  नेपथ्य से   एक आवाज़ ) --- " अरे पेशे वालों को भी कहाँ छोड़ा इन्होने ,,  इनकी वजह से तो मेरा जमा जमाया धंधा ही चौपट हो गया ? '
  ओझा --- " यह कौन बड़बड़ा रहा है ,,? '
नेपथ्य से मसान का बहुत --- " यहां एक   भूत  बैठा है  ,,, प्रकाशक का  भूत,,,वही बड़बड़ा रहा है ! "
लेखक ---" बुलवाएं उसे सरकार ,,,कचहरी में  वह  मेरी रायल्टी खा गया है  ! "
               (   एक भूत ,,,, प्रकाशक  का,,,, कूद कर आगे आता है ! )
  प्रकाशक --" मुझे बहुत   घाटा हुआ है  सरकार   एक किताब नहीं ,बिकी ,!   मैं प्रेस की उधारी के सदमे से ही स्वर्ग सिधार गया ! "
राइटर --- " झूठ ,,, फिर से झूठ ,,,  स्वर्ग सिधारे होते तो यहां होते   इस ओझा के पास ,,? '
ओझा --- "    क्या  मतलब  ,,?  क्या यह स्वर्ग से लौट आया ,,? "
राइटर -- "  नहीं  ओझा जी यह यहीं नर्क भोग रहा है ,,! किसी की रायल्टी खा कर किसी को स्वर्ग कैसे मिल सकता है ,,?  यह   प्रेस और बुक डिपो के सामने बैठ कर  आने जाने वालों को ताकता है ,,, क्या कोई किताब बिकी ,,?? "
ओझा --- " क्यों जी ,,,तुमने इसकी रायल्टी क्यों नहीं दी ,,? '
 प्रकाशक --"  रायल्टी ,,??? "   मेरे घर के पुरे कमरों में सिर्फ इसी की किताबें  भरी पडी हैं ,, कभी बिकी ही नहीं ,,!  अब उसे फाड़ कर मेरी बीबी अंगीठी या चूल्हा जला रही है ! "
राइटर --- "  कहीं तो काम   आ रही हैं  मेरी कृतियाँ ,  उसी की रायल्टी दे दो ,,! "
 डायरेक्टर (  दूर से ) --- " मैंने रीना को एक बार इसकी किताबों के पन्नो पर भेल पुरी  खाते देखा था ! "
ओझा --- ( अचानक   चौंक  कर ,   मर्माहत स्वर में ) ,,,"   हाय ,,हाय !  रीना भी गयी क्या काम से ,,, ?? भेल पुरी  खा कर  टाइम गुजार रही है क्या ,,? '
  डायरेक्टर ---" नहीं हुजूर ,,!  उसकी तो काफी डिमांड है !  हर डायरेक्टर अपने नाटक में उसे  काम देना चाहता है ,,,दत्ता , मिर्ज़ा ,  राही  ,,   उसे क्या कमी ,,?   भेल पुरी   तो वह शौकिया खाती है   मजबूरी  में नहीं ! "
ओझा --- " खैर ,,,बताओ ,,प्रकाशक महोदय ,,की तुम तुम्हारी किताबें क्यों नहीं बिकी ,,? " ,,,कहाँ फंस गए तुम ,,"
 प्रकाशक --- " मैं फंसा नहीं ,,,फंसा लिया गया हुजूर ,,! मैं तो सीधा सादा प्रेस वाला था ,,, यूनिवर्सिटी में  स्टेशनरी और  प्रिंटिड   फ़ार्म सप्लाई करता था  ! आर्डर लेता था ! "
  ओझा -- " तो अचानक  प्रकाशक कैसे बन गए ,,? "
प्रकाशक --- यह वहां प्रोफ़ेसर था ,,, ये बोला ,,प्रकाशक बन जाओ ,, !  बड़े फायदे हैं ,, ! मेरी एक पूरी   किताब छाप दो ,  यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में ही हज़ार  प्रतियां  लग जाएंगी ,, और फिर ऐसी कई कई यूनिवर्सिटीज हैं ,, कई कई लाइब्रेरियों ,,में कई कई प्रतियां  लग जाएंगी ,,, बाकी बुक स्टालों पर  और कुछ अकादिमियों में बंटवा  देंगे ,,, कुछ यारों को थमा कर पैसा वसूल लेंगे ,, लिख देंगे ,, सप्रेम भेंट ,,! "
ओझा --- " क्यों रे  ज्ञानी ,,,उर्फ़ ज्ञान प्रकाश ,,!  तूने किसी बड़े प्रकाशक को क्यों नहीं पकड़ा ,,?? "   इसे क्यों बर्बाद किया ,,? "
राइटर -- "( रुआंसे स्वर में ) --"   बड़े प्रकाशक तो मुझी से पैसा मांग रहे थे   पूरा   पैसा  छपने से पहले  एडवांस !  मेरे पास कहाँ से आता ,,? '
ओझा --- " कैसी है यह नाटकों की दुनिया ,,?   रंगों में बदरंग ,,! "
राइटर _  " और इसने  किताब भी वैसी ही  छापी --   बदरंगी  ! ना गेटअप , ना कोई आकर्षक रंगीन आवरण ,,! प्रिंटिंग इतनी डिफेक्टिव की  ,,!   डायलॉग में मैंने जहां अबला लिखा था ,,इसने छाप दिया तबला ,!  ऐसे ही कमला को गमला , लज़ीज़ को अज़ीज़ ,   कानी को रानी ,   छैला को मैला ,,!   भला फिर कैसे बिकती किताब ,,! "
प्रकाशक -- " "  प्रूफ रीडिंग के लिए दी तो थी तुम्हें ,,! फिर क्या संशोधन किये तुमने उस वक्त ,,? "
  राइटर -- "  मैंने अधिक ध्यान    नहीं दिया ,,!   मेरी बीबी मास्टरनी थी  ,, तीसरी क्लास की कापियां जांच रही थी ,, वह बोली इत्मीनान रखो मैं जांच दूंगी ,,, !  मैं उस समय बहुत बिज़ी था ,,  एक जरूरी सब्जेक्ट पर  हॉट डिमांड पर लिख रहा था ,,, बर्निंग टॉपिक था ,,,इसलिए उसे ही दे दी ,, और दूसरे दिन   उसी से मांग कर यह  वापिस ले गया ,,, ! "
  प्रकाशक ---"  और वह   किताब   सिर्फ तीसरी क्लास का सब्जेक्ट बन कर रह गयी !   किसी ने नहीं खरीदी  सरकार ,,!   मैं लुट  गया  ,,,सदमे में मेरी जान चली गयी ,! "
  डायरेक्टर --- "  उस किताब से मैंने कुछ ड्रामे  भी किये थे   हुजूर ,,!  मुझे   पूरे  डायलॉग बदलने पड़े ,,, डायलॉग बदलने से  सब्जेक्ट और क्लाइमेक्स   सभी कुछ बदल गया !

     (  नेपथ्य से ,,,भूतों की आवाज़ें ,, कहीं ,दर्शक तो नहीं बदलने पड़े ,,, ही ही  ही  ,,, खी   खी   खी  ,,! )
कई और भूत ---ही ही  ही ,,,खी  खी  खी ,,,)
 राइटर --- " लेकिन  उस किताब से एक नाटक ,," गहरा रंग " तो खूब चला था ,,,इस डायरेक्टर ने खूब कमाया उससे ,! "
  डायरेक्टर -- " गहरा रंग तो जमा था गहरी रंगीन लाइट से   गहरे रंग की ड्रेस से ,,   और रीना की वजह से ,,,गहरे लाल रंग की लिपस्टिक   खूब जंच  रही थी उस नाटक में ,,! "
ओझा --- "  तुम गहरे में जा रहे हो डायरेक्टर ,,,बाहर निकलो वरना डूब  जाओगे ,,,बेमौत मरे जाओगे समझे ,,! "


राइटर --- "  जिन खोजा  तिन  पाइयाँ। ..गहरे नाटक पैठ " ,,! "
डायरेक्टर --- " क्या गहरे नाटक पैठ ,,???  मैं तो तभी से मुँह छिपाए घूम रहा हूँ    पता नहीं  कब मिल जाए वो   ओझा  --- " कौन "
  डायरेक्टर -- " अरे वही डेकोरेटर   जिसने उस नाटक में टेंट , लाइट माइक , कुर्सियां सप्लाई की थीं ,,! "
ओझा ---"  क्यों ,,,उससे क्यों भाग रहे हो तुम ,,? "
  डायरेक्टर --- " बड़ा हेवी  बिल है उसका ,,,कहता है   तीस कुर्सियां टूट गयीं ,, दो दरी चोरी  चली गयी ,, छह हेलोजन फ्यूज हुए ,  माइक बिगड़े , चादर  आर्टिस्ट ले गए ,,! "
प्रकाशक --- " एक दिन वह भी मरेगा ,,! सदमे से ,,! अगर ऐसे ही दो चार नाटक और हुए तो  वह भी घाटा उठाएगा ,, बनेगा ,,,भूत ,,! "
ओझा --- " बहुत नुक्सान कर रहे हो तुम लोग   सभी दिशाओं में ,,! ,,, यह प्रकाशक तो भूत बन ही गया , साहित्य में भी अपूरणीय क्षति कर  रहा है यह राइटर ,, कैसे होगा ,, कैसे बचेगा यह रंग कर्म का संसार ,,! "
राइटर --- "  मुझे तो मुंबई से बुलावा आगया है ,,, वहां तो रोज सेट पर ही बैठ कर डिमांड पर लिखने का काम है ,,, मुझे अब इस रंग कर्म से क्या लेना देना ,, जिसके भाग्य में जो लिखा है वह भोगे ,, ! "
  प्रकाशक ---" ये सब ऐसे ही लोग हैं ,,  एक दूसरे को दच्चा देने वाले। .!   खुद के नाम और खुद के भविष्य के भूखे ,,!   इन्हे तो सजा मिले की  अगले जनम में ये प्रकाशक और डेकोरेटर बने ,,   भारी घाटा उठायें ,,,और भूत बने ,,!
 

   (  नेपथ्य में सभी भूत --- ही ,,ही,,ही,,खी  खी खी ,,,)

   ओझा -- ( जोरदार स्वर में ) --- " चोप्प ,,,! तू लोग किसी के भी दुःख में हँसते हो    ,,,क्या संवेदनाएं खो गयी हैं तुम्हारी ,,? '
  मसान का भूत --- " आखिर भूत ही तो हैं सरकार ,,!  क्या जाने की कब हंसना है कब रोना ,,! "

डायरेक्टर --- " यही वजह है ,,,यही वजह है ,,!   जिससे मैंने नाटकों में बड़े बदलाव किये !   दर्शक ना कभी किसी के सगे  हुए हैं ,,ना होंगे ,,!   बे मतलब ताली बजा  दें ,, जब चाहें हंस दें ,,,और जब चाहे   तो औरतें रोने लगें !  बच्चे तो  शोर करते ही रहेंगे  ! चाहे क्लाइमेक्स हो चाहे कोई संवेदनशील दृश्य ,,कहो तो उबासी लेने लगें !   उन्हें तो वही करना है जो वे चाहेंगे ,,,सब के सब भूत ,,! "
ओझा--" लेकिन अब उस डेकोरेटर का क़र्ज़ कैसे उतारोगे ,  तुम डायरेक्टर ,? "
डायरेक्टर -- " एक नया नाटक खेल कर ,,! "
ओझा --- " नुक्कड़ पर खेलोगे ,,? "
डायरेक्टर --- " नुक्कड़ पर पैसे कहाँ से मिलेंगे ,,?   और थियेटर में तो फिर से कर्जा लद  जाएगा ! "
ओझा -  "  फिर " ? '
डायरेक्टर ---" इस बार तो शायद रीना भी नहीं मानेगी ,, उसकी माँ  बीमार है   उसे भी पैसा चाहिए ,,मांग रही थी ,! "
ओझा --- ( दुखी हो कर )  रीना की माँ  बीमार है ,,,, ? (  उसाँस  ले कर ) --" लगता है लास्ट स्टेज आ गयी ,!
डायरेक्टर -- " हाँ हुजूर ,,! ,, रीना की माँ  को कैंसर है   , उसका भाई बे रोजगार है ,,! वह भले घर की लड़की है !  आर्केस्ट्रा में तो वह इसलिए गाती  थी  क्यूंकि पैसे उसे तुरंत मिल जाते थे ! हफ्ते में आर्केस्ट्रा किसी ना किसी प्रोग्राम में एक बार बुक हो ही जाता था ,,,कभी किसी संस्था में ,,, कभी किसी शादी में ,,कभी किसी बर्थ डे  पार्टी में ,, कुछ ना कुछ आर्केस्ट्रा के जरिये वह पा ही जाती थी ,,,अब नाटक में क्या मिलेगा ?? मजबूर है ,,इसलिए मायूस भी थी ! "
ओझा --- "  (  लेखक से ) ,," तुम कुछ लिख  दो   सामयिक ही सही पर शो अच्छा जाना चाहिए    शायद नाटक  हिट  हो जाए ,,  रीना की जरुरत पूरी   हो जाए ! "
 राइटर --- " मैं खुद भूखा हूँ सरकार ,,,कलम तो चल जाएगी   लेकिन पेट में रोटी कैसे आये ,,??? "   अब तो  यह प्रकाशक भी मर चुका है ,,,इसके प्रेस में भी बैठना पड़ता है ,,!   आखिर वह घर भी तो मेरा ही है ,, मेरी भौजी है वह ,,,,मेरे भतीजे हैं वहां ,,! "
प्रकाशक --- " मैं तो सचमुच भूत बन चुका हूँ ,,! सिर्फ  किताबें बची हैं ,,,कोई खरीद ले   तो यह लेखक पैसा ले ले ,,,कुछ नया लिख दे ,, मुझे कोई उज्र नहीं ! ,,,चाहे तो  नाटक के सभी पात्रों को बाँट दे ,,! "
राइटर --" भला कौन खरीदेगा  किताबें ,,? '
ओझा --- " मैं खरीदूंगा ,,! मेरे पास हैं पैसे ,,! "
प्रकाशक -- " आपके पास हुजूर ,,?? "
ओझा -- "  हाँ मेरे पास एक करामाती अंगूठी है ,!  इसे तुम ले लो ! बाजार में ऊँचे दाम बिकेगी ,, जितना पैसा चाहोगे   मिलेगा ,,! ,,सब निबट जाएगा !  रीना को पैसे मिलना ही चाहिए   ! "
राइटर ---"  यह क्या लेगा यह अंगूठी ,,  यह तो भूत है ,,मुझे दीजिये ,, मैं बेचता हूँ इसे बाजार  में ,,!   नया नाटक होना ही चाहिए ,,,चाहे जिस कीमत पर हो ,,! "

     ( ओझा उंगली से अंगूठी निकाल कर देता है )
    ( अचानक  तेज चकाचोंध ,,, विचित्र आवाजे ,, फिर ओझा का शरीर कांपता है ,, ओझा बड़बड़ाता है ,,ढब ढब ढब,,   खप खप खप ,,   डम डम डम  ,,,ढब ढब ,,,,,, और गिर पड़ता है )
 अचानक मंच पर अन्धकार ) फिर धीरे धीरे प्रकाश उभरता है ,,, पूरा  मंच खाली है ,, सिर्फ गौरव सिंह  मंच के बीच पड़ा है )
   गौरव सिंह ( उठ कर मंच  बैठता  हुए  आँखे  मल कर खड़ा हो जाता है )


    गौरव सिंह --- " यह सब क्या था ,  गौरव सिंह ,?? यह मैं क्या देख रहा था ? ,, मेरी अंगूठी कहाँ गयी जो उस औघड़ ने दी थी ,,? ,,,अरे,,!!!,,, वो तो गायब हो गयी ,,!   और जेब में पचास का नोट ,,?    ( टटोलकर )  ,,हैं,,,!!!!   ,,यह तो वैसा का वैसा ही रखा है ,,!   और ऊपर वाली जेब में यह क्या गड रहा है ,,?  अरे ,,!!  यह तो  मेरी सिगरेट है   ,,वही चुराई गयी सिगरेट ,,!   तो फिर  वह सब क्या था ,,?  क्या मैं सपना देख रहा था ,,? ",,तो क्या झूठ था वह त्रिलोकीनाथ ,, और उसकी करामाती अंगूठी ,,! "
  ( धीरे धीरे आगे आता है )
   "  चलो सिगरेट तो बची है ,, उसे ही फूंकें ,,! " लेकिन आखिर सच क्या है   वो नाटक या   यह सिगरेट ,,या फिर मेरे पास रखा यह पचास का नोट ,,?? " ,,, मुझे तलाशना होगा   मुझे तलाशना होगा की रीना को आखिर आर्केस्ट्रा में क्यों गाना पड़ा ,,?   वह नाटकों में क्यों गयी ,?   कला के लिए या फिर माँ  की बीमारी के लिए ??,, ,,,,या फिर घर की अहम् जरूरतों के लिए ,,?   तलाशना होगा कि नाटकों से उसे क्या मिला ,,? ,, वाहवाही ,,? यश ??  या फिर आत्म संतोष ?
     दुनिया के रंगमंच के जीवंत पात्र  कृत्रिम  रंग मंच पर क्या कर रहे हैं ,,?   किसके लिए कर रहे हैं ,,?   और उनके करने से कुछ हो भी रहा है की नहीं ,,??
     जब तक मुझे यह सब पता नहीं चल जाता ,,, नहीं करूंगा मैं ,,,नाटक ,,!  नहीं करूंगा कुछ भी ,,!  करूंगा तो सिर्फ एक काम ,,, रीना की मदद   सच्ची मदद ,, जिसकी उसे सख्त जरुरत है ,,!  ,,,चाहे फिर मुझे इस एकलौते पचास  के  नोट को ही खर्च क्यों ना करना पड़े ,,! "

  ( इति,,,)

  ---- सभाजीत























"
















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