शुक्रवार, 23 मार्च 2012

सत्य कि खोज - - " क्षुधा "



  ,,,,," बोध " ,,,,,,
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श्रेष्ठि  पुत्र ,,,'प्रसून  '  ने ' सत्य' को जानने का निश्चय किया ! 

उसने घर त्याग कर जंगल मे साधना करने का संकल्प लिया !

सबसे पहला विरोध किया षोडसी पत्नी ने !

नेत्रों मे अविरल अश्रु धार लिए वह बोली -

" नाथ ! मेरे इस सोन्दर्य , लावण्य , अनुराग से विमुख होकर आप कहाँ चले ?"

" देवि ! यह सोन्दर्य , लावण्य , अनुराग सत्य नहीं ! क्या आप म्रत्युपरन्त इस सोन्दर्य की स्वामिनी रह सकेंगी ... ? " प्रसून ने शांत भाव मे प्रति प्रश्न किया !

-"नही ! किंतु अग्नि को साक्षी मानकर जो मेने आपकी सेवा करने का प्रण किया , वह मे कैसे पूर्ण करूँगी ?"

-" विधाता यदि चाहेगा तभी आप ऐसा कर सकेंगी , अगर विधाता ने आप को ही रुग्ण कर दिया तो क्या आप मेरी सेवा का संकल्प पूरा कर सकेंगी देवी ..?"- प्रसून ने मुस्करा कर पूछा !

पत्नी ने असहाय होते हुए अंतिम तर्क प्रस्तुत किया --

"आपने अग्नि के सामने ,मेरी इच्च्छाओं को सम्मान देने का
प्रण लिया था , क्या मेरी इच्च्छा के विरुद्ध भी आप मुझे छोड़ कर जंगल जाएँगे ?

-" यह बात तो आप पर भी लागू है देवी ! क्या मेरी इच्छाओं के विरुद्ध आप मुझे रोकना चाहेंगी ?क्या मेरी इच्छाओं का सम्मान आप नही करना चाहेंगी ..?"- प्रसून ने तर्क को तर्क से ही काटते हुए फिर प्रति प्रश्न किया !

पत्नी निरुत्तर हो गई !

प्रसून ने शांत भाव से कहा -
"फिर में आपको त्याग कर नही जा रहा हूँ देवी ! सत्य की खोज हेतु एकांत मे जा रहा हूँ !आप अर्धांगिनी है , मुझे हंस कर विदा करें !"

पत्नी ने एक पल प्रसून को गौर से देखा, और फिर एक ओर हट गई !

प्रसून ने दो कदम आगे बढ़ाए !
सामने माँ थी !

माँ ने पूछा --
"क्या मेरे दूध से उऋण हुए पुत्र ?"

"माँ आपने क्या दूध मुझे ऋण मे पिलाया था ?"- प्रसून ने किंचित आश्चर्य से पू छा !

"नही पुत्र ! मेने तुम्हे दूध पुत्र भाव मे पिलाया है , किंतु क्या तुम्हारा यह कर्त्यब्य नही की तुम व्रद्ध अवस्था मे हमारी सेवा करो ..?"

"आपकी सेवा के लिए मेरी पत्नी यहा है माँ !, मेरी अर्धांगिनी !मेरा आधा अंग होने के नाते , मेरी अनुपस्थिति मे आपके प्रति मेरे कर्त्यब्य का निर्वाह वह करेगी !"- प्रसून ने शांत भाव मे पत्नी की ओर देखते हुए कहा !
पत्नी ने सहमति मे सिर हिलाया !

माँ ने हार नही मानी !
प्रसून के सिर पर हाथ फेरते हुए वह बोली _

"माँ का मौह त्याग कर तुम कैसे जा सकते हो पुत्र ?"

" इस मौह से भी बड़ा सत्य का मौह है माँ ! में उसी को जानने के लिए जा रहा हूँ ! आप मुझे अनुमति दें !"

इतना कह कर प्रसून ने दो कदम और आगे बढ़ाए !

पिता शांत भाव मे आगे खड़े थे !

गंभीर स्वर मे पिता ने पूछा --

" ग्रहस्थ जीवन मे रहकर क्या सत्य की खोज नही हो सकती पुत्र ..?"

" संभवतः , नही तात !"

" भला क्यों ?"

" एकाग्रता के अभाव के कारण !"

"क्या जीवन मे प्रतिदिन सत्य हमारे सामने नही आता ?"

"आता है ! लकिन वह अस्‍पस्‍ट है !अस्पष्ट वास्तु कभी सत्य नही हॉती ! ग्रहस्थ जीवन मे सत्य सिर्फ़ झलक देता है - वह मेरे लिए पर्याप्त नही !

"एकाग्रता क्या है ..?"

" बिना व्यवधान के , शांत मन से किसी एक बिंदु पर मनन करने की क्रिया !"

"यह कहाँ मिलेगी ?"

"शायद ऐसी जगह , जहाँ कोई और पक्ष मेरे सामने शेष ना रहे !"

पिता ने फिर कोई प्रश्न नही किया !

वे एक ओर हट गये !

बाहर द्वार पर बाल-सखा ,मित्र, अन्य रिश्तेदार भीड़ लगाए खड़े थे !
प्रसून ने फिर किसी की ओर नही देखा - किसी से बात नही की !

चुपचाप सिर झुका कर वह घर से बाहर निकल कर गाव पर कर पार कर जंगल की ओर बढ़ गया!


गहन जंगल मे , एक विशाल वटवृक्ष के नीचे स्वच्छ शिला पर बैठ कर प्रसून ने अपनी साधना प्रारंभ की !

उसने महसूस किया कि उसकी साधना के मार्ग मे सबसे पहली अड़चन 'क्षुधा ' है !

इसलिए साधना के पहले चरण मे उसे उचित लगा कि वह' क्षुधा 'पर नियंत्रण करे !

उसने व्रत लिया कि वह भोजन नही करेगा !
कमंडल मे जल भरकर वह पद्मासन मे , एकाग्रता के साथ , आँखें बंद कर मनन करने बैठ गया !

-
जंगल रमणीक था !

वट व्रक्ष के चारों ओर कई प्रकार के और वृक्ष लगे थे ! जो फल दार थे !

वृक्ष से सॅट कर एक पयस्वनि बह रही थी !

वृक्ष पर कई पक्षियों का वास था !, जिनकी चहचाहाहाट से जंगल गुँजायमान हो रहा था !

प्रसून को बिना कुछ खाए पिए , एक रात, एक दिन व्यतीत हो चुका था !
दूसरे दिन मध्यान्ह मे अचानक एक वृक्ष पर शोर मच गया !
डाल पर रहने वाले पक्षी ज़ोर ज़ोर से चीख रहे थे !

प्रसून ने बंद नेत्र खोले,देखा -

एक सर्प डाल पर चढ़ा हुआ था !वह कॉटर मे रख्खे पक्षियों के अंडों कि तरफ बढ़ रहा था ! पक्षी चीख चीख कर क्रंदन कर रहे थे !, किंतु सर्प ने अपने लक्ष्य क़ी तरफ निरंतर बढ़ कर पक्षियों के अंडों को उदरस्थ कर लिया !उसने पक्षियों के क्रंदन , विरोध क़ी बिल्कुल परवाह नही क़ी !

प्रसून को यह द्रश्य देख कर , पक्षियों के प्रति बड़ी करुणा उत्पन्न हुई ! उसकी आँखों मे दो अश्रु बिंदु आ गए !

सर्प विषधर था !उसके कार्य मे बाधा डालना संभव नही था , इसलिए पसून ने अपने नेत्र बंद कर लिए !
थोड़ी ही देर मे वातावरण पुनः , पूर्ववत शांत हो गया !

प्रसून ने एकाग्र चित्त होने क़ी कोशिश क़ी , तभी पुनः पक्षियों का कलरव बढ़ गया !

किसी बड़े पक्षी के डेनों क़ी छटपटाहट को सुन कर प्रसून ने फिर आँखे खोली !

एक अन्य द्रश्य सामने था !

एक बाज़ उस सर्प पर झपट्टा मार रहा था , जिसने अभी अभी पक्षियों के अंडे खाए थे !सर्प आड़ा तिरच्छा होकर भाग रहा था , किंतु बाज़ ने उसे फ़ौरन ही अपने नुकीले पंजों मे कस लिया!
छटपटाते सर्प को पंजों मे दबा कर बाज़ दूर आसमान मे उड़ गया !

एक मृत्यु दूसरी मृत्यु का ग्रास बन गई !

प्रसून क़ी आँखों मे इसबार करुणा नही जागी ! उसने अपनी आँखे फिर बंद कर ली !

आँखें बंद होने पर , हृदय मे बैठे 'ग़ूढ प्रसून' ने , 'स्थूल' , शारीरिक प्रसून से बात प्रारंभ क़ी !

- " सर्प ने पक्षियों के अंडे खाए, तुम्हें वह देख कर करुणा जागी ! !
किंतु छटपटाते सर्प को बाज़ ले गया , तुम्हें वह द्रश्य देख कर करुणा क्यों नही जागी ?"

प्रसून को तुरंत कोई उत्तर नही सूझा !
थोड़ी देर मनन करके प्रसून बोला !-

" करुणा का कारण पक्षियों का क्रंदन था ! 'क्रंदन' प्राणियों मे संवेदनाएँ उत्पन्न करता है !"

-" संवेदनाएँ क्या है ?"

'किसी एक प्राणी को हुई वेदना का अनुभव जब समान रूप स कोई दूसरा प्राणी करे !"

" 'क्या वह स्थाई है ? "

" नही वह तत्कालिक है "

" तब स्थाई क्या है ?"
प्रसून थोड़ी देर शांत रहा ! फिर उसने उत्तर दिया -

" स्थाई तो सिर्फ़ सत्य है "

अंदर बैठा ग़ूढ प्रसून हंसा ! उसने कहा -

" इस घटना मे सत्य क्या है ? "

" सत्य तो 'क्षुधा' है "

" हाँ वह सत्य है !सर्प ने अंडे इसलिए खाए, क्योंकि वह क्षुधा ग्रस्त था !बाज़ ने सर्प को इसलिए खाया क्योंकि वह क्षुधा ग्रस्त था !- क्षुधा जीवन का आधार है , किंतु मूल मे वह विनिस्टीकरण का 'कारण' है !"

"विनिशटिकरण से तुम्हारा तात्पर्य ?"

"विनिश्टीकरण दोनो अर्थों मे है ! क्षुधातुर हो कर एक जीव दूसरे जीव को नॅस्ट करता है !नॅस्ट होकर एक जीव दूसरे जीव के जीवन का आधार बनता है ! दूसरी ओर क्षुधा क़ी अवहेलना स्वयं के जीवन को नॅस्ट करती है ! इस प्रकार दोनो स्थिति मे क्षुधा विनिस्तिकरण का कारक है !"

"तो क्या विनिस्टीकरण सत्य है >"

"हाँ !! विनिस्टीकरण सत्य है ! -
गतिमान चक्र का मूल आधार है विनिस्टीकरण ! इसलिए वह परम सत्य है ! हर पदार्थ, हर जीव , हर सृष्टि का विनिस्टीकरण आवश्यक है ताकि गति चक्र चल सके !
_ विनिस्टीकरण से विचिलित होना अविवेक पूर्ण है !

" और जीव क़ी संवेदनाएँ ?"

"-संवेदनाएँ , जैसा क़ी तुम्हने कहा- तत्कालिक है ! वह सत्य नही !"

प्रसून के अंदर कहीं एक ज्योति पुंज क़ी छ्होटी सी लौ आलोकित हो उठी !उसे बोध हुआ - क्षुधा अपरिहार्य है ! उससे दूर भागना संभव नही !

" तब क्या उसे नियंत्रित करना उचित होगा ? "-उसने ग़ूढ प्रसून से प्रश्न किया !

"- नियंत्रण किसी भी संचालन के लिए अति आवस्यक क्रिया है ! -इसलिए खुद के शरीर को संचालित करने के लिए क्षुधा पर नियंत्रण करना ज़रूरी है ! किंतु उसकी अवहेलना करना अप्राकितिक और अनुचित है !- तुम क्षुधा को नही जीत सकोगे !"

प्रसून ने आँखें बंद कर ली !अंदर क़ी ज्योति का धवल प्रकाश बढ़ रहा था !यह प्रकाश स्थाई प्रकाश था !

तभी वृक्ष से एक फल , पृथ्वी पर आकर , उसकी अंजुलि मे गिरा !
प्रसून ने शांत भाव से उस फल को देखा !फिर उसे उठाकर अपने , कमंडल मे रख लिया !

समय ब्यतीत होने लगा !

अभी उसके सामने सत्य के कई पक्ष उजागर होना बाकी थे !
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 (क्रमशः ,,,,,,)

सभाजीत "सौरभ"

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