रेष्ठी पुत्र प्रसून ने ' सत्य' को जानने का निश्चय किया !
उसने घर त्याग कर जंगल मे साधना करने का संकल्प लिया !
सबसे पहला विरोध किया षोडसी पत्नी ने !
नेत्रों मे अविरल अश्रु धार लिए वह बोली -
" नाथ ! मेरे इस सोन्दर्य , लावण्य , अनुराग से विमुख होकर आप कहाँ चले ?"
" देवि ! यह सोन्दर्य , लावण्य , अनुराग सत्य नहीं ! क्या आप म्रत्युपरन्त इस सोन्दर्य की स्वामिनी रह सकेंगी ... ? " प्रसून ने शांत भाव मे प्रति प्रश्न किया !
-"नही ! किंतु अग्नि को साक्षी मानकर जो मेने आपकी सेवा करने का प्रण किया , वह मे कैसे पूर्ण करूँगी ?"
-" विधाता यदि चाहेगा तभी आप ऐसा कर सकेंगी , अगर विधाता ने आप को ही रुग्ण कर दिया तो क्या आप मेरी सेवा का संकल्प पूरा कर सकेंगी देवी ..?"- प्रसून ने मुस्करा कर पूछा !
पत्नी ने असहाय होते हुए अंतिम तर्क प्रस्तुत किया --
"आपने अग्नि के सामने ,मेरी इच्च्छाओं को सम्मान देने का
प्रण लिया था , क्या मेरी इच्च्छा के विरुद्ध भी आप मुझे छोड़ कर जंगल जाएँगे ?
-" यह बात तो आप पर भी लागू है देवी ! क्या मेरी इच्छाओं के विरुद्ध आप मुझे रोकना चाहेंगी ?क्या मेरी इच्छाओं का सम्मान आप नही करना चाहेंगी ..?"- प्रसून ने तर्क को तर्क से ही काटते हुए फिर प्रति प्रश्न किया !
पत्नी निरुत्तर हो गई !
प्रसून ने शांत भाव से कहा -
"फिर में आपको त्याग कर नही जा रहा हूँ देवी ! सत्य की खोज हेतु एकांत मे जा रहा हूँ !आप अर्धांगिनी है , मुझे हंस कर विदा करें !"
पत्नी ने एक पल प्रसून को गौर से देखा, और फिर एक ओर हट गई !
प्रसून ने दो कदम आगे बढ़ाए !
सामने माँ थी !
माँ ने पूछा --
"क्या मेरे दूध से उऋण हुए पुत्र ?"
"माँ आपने क्या दूध मुझे ऋण मे पिलाया था ?"- प्रसून ने किंचित आश्चर्य से पू छा !
"नही पुत्र ! मेने तुम्हे दूध पुत्र भाव मे पिलाया है , किंतु क्या तुम्हारा यह कर्त्यब्य नही की तुम व्रद्ध अवस्था मे हमारी सेवा करो ..?"
"आपकी सेवा के लिए मेरी पत्नी यहा है माँ !, मेरी अर्धांगिनी !मेरा आधा अंग होने के नाते , मेरी अनुपस्थिति मे आपके प्रति मेरे कर्त्यब्य का निर्वाह वह करेगी !"- प्रसून ने शांत भाव मे पत्नी की ओर देखते हुए कहा !
पत्नी ने सहमति मे सिर हिलाया !
माँ ने हार नही मानी !
प्रसून के सिर पर हाथ फेरते हुए वह बोली _
"माँ का मौह त्याग कर तुम कैसे जा सकते हो पुत्र ?"
" इस मौह से भी बड़ा सत्य का मौह है माँ ! में उसी को जानने के लिए जा रहा हूँ ! आप मुझे अनुमति दें !"
इतना कह कर प्रसून ने दो कदम और आगे बढ़ाए !
पिता शांत भाव मे आगे खड़े थे !
गंभीर स्वर मे पिता ने पूछा --
" ग्रहस्थ जीवन मे रहकर क्या सत्य की खोज नही हो सकती पुत्र ..?"
" संभवतः , नही तात !"
" भला क्यों ?"
" एकाग्रता के अभाव के कारण !"
"क्या जीवन मे प्रतिदिन सत्य हमारे सामने नही आता ?"
"आता है ! लकिन वह अस्पस्ट है !अस्पष्ट वास्तु कभी सत्य नही हॉती ! ग्रहस्थ जीवन मे सत्य सिर्फ़ झलक देता है - वह मेरे लिए पर्याप्त नही !
"एकाग्रता क्या है ..?"
" बिना व्यवधान के , शांत मन से किसी एक बिंदु पर मनन करने की क्रिया !"
"यह कहाँ मिलेगी ?"
"शायद ऐसी जगह , जहाँ कोई और पक्ष मेरे सामने शेष ना रहे !"
पिता ने फिर कोई प्रश्न नही किया !
वे एक ओर हट गये !
बाहर द्वार पर बाल-सखा ,मित्र, अन्य रिश्तेदार भीड़ लगाए खड़े थे !
प्रसून ने फिर किसी की ओर नही देखा - किसी से बात नही की !
चुपचाप सिर झुका कर वह घर से बाहर निकल कर गाव पर कर पार कर जंगल की ओर बढ़ गया!
गहन जंगल मे , एक विशाल वटवृक्ष के नीचे स्वच्छ शिला पर बैठ कर प्रसून ने अपनी साधना प्रारंभ की !
उसने महसूस किया कि उसकी साधना के मार्ग मे सबसे पहली अड़चन 'क्षुधा ' है !
इसलिए साधना के पहले चरण मे उसे उचित लगा कि वह' क्षुधा 'पर नियंत्रण करे !
उसने व्रत लिया कि वह भोजन नही करेगा !
कमंडल मे जल भरकर वह पद्मासन मे , एकाग्रता के साथ , आँखें बंद कर मनन करने बैठ गया !
--- सभाजीत 'सौरभ'
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