रविवार, 25 मार्च 2012

" सिंह वाहिनी "

( यह कथा आसुरी है - , इसे सनातनी दृष्टि से न पढ़ें । यदि पढ़ ही ले तो अपने अन्दर किसी असुर को जरुर तलाशें )

"नगर की सर्व श्रेष्ठ दुर्गा उत्सव समिति द्वारा स्थापित, दुर्गा प्रतिमा में , त्रिशूल का दर्द झेलते हुए , महिषासुर दैत्य की तन्द्रा जब थोड़ी ,  जागी, तो वह सिहर उठा !.माँ दुर्गा का 'सिंह ', अपना एक पंजा उसके नितम्ब में गडाए था , और विशाल जबड़ा फैलाकर , उसे खा जाने को तत्पर था. त्रिशूल की नोक उसकी छाती में गडी थी लकिन ह्रदय तक नहीं पहुँच पायी थी , इसलिए शायद वह मूर्छा से पुनः  जाग उठा था ।,

बाहर बहुत से भक्त , अंग्रेजी परिधानों को त्याग कर , सनातनी वेश - " धोती-कुरता " में सजे,  तालियाँ बजा कर , आँखें मूंदे आरती गा रहे थे.माँ का पूरा ध्यान सिर्फ अपने भक्तों की और ही था , और वे किंचित स्मित मुद्रा में - वात्सल्य भरी निगाहों से अपने भक्तों को निहार रही थी । अष्टभुजी माँ की भुजाओं में सजे अस्त्र शास्त्र अब  सिर्फ माँ की शोभा बढाने में ही  अपनी भूमिका को सार्थक मान रहे थे। संभवतः माँ उनका उपयोग नहीं करने वाली थी।

महिषासुर ने थोड़ी थोड़ी आँखे खोलते हुए भक्तों को पहचान ने की चेष्टा की - " क्या ये वही देव है ? जिन्होंने मेरे वध के लिए 'दुर्गा' की आराधना की थी ?"- किन्तु उसे इन चेहरों में किसी भी देवता की छवि नहीं दिखाई दी। ना तो वे 'कुंडल' पहने हुए थे , ना ही उनके हाथों में' गदा 'थे , और ना ही वे 'सोंमरस  पान' किये हुए थे ।

 महिषासुर  ने मौका देखा, -"माँ " पूरी तरह भक्तों में निमग्न थी। सिंह भी सिर्फ पोज़ दे रहा था , त्रिशूल उसकी छाती पर बस  टिका था। वह धीरे से अपना रूप बदल कर , पार्थिव शरीर से बाहर निकल कर पीछे की ओर लुढ़क गया । मूर्ति के पीछे अन्धकार था । कपडे के शामियाने को उठाकर वह बाहर निकल गया ओर भक्तों के बीच आकर खड़ा हो गया !

।अब उसने ध्यान से माँ के चेहरे को देखा -बहुत सुन्दर छवि थी.यह छवि तो उस समय भी नहीं थी जब उसने प्रथम बार दुर्गा को देख कर अपना प्रणय निवेदन भेजा था .यह छवि किसी वीरांगना की नहीं, बल्कि सोलह श्रृंगार युक्त सुन्दर स्त्री की थी। उसे हंसी आगई । काश इन भक्तों ने उस दुर्गा को देखा होता - जो रणक्षेत्र  में गरज कर , कूद कर उसके सामने आयी थी । यदि ये लोग उस छवि को देख लेते तो एक छण  भी यहाँ न ठहरते । स्त्रियाँ सिर्फ सोंदर्य का ही नहीं , शक्ति का भी प्रतीक भी है , यह बात इन भक्तों को शायद तभी समझ में आती - जब माँ अपने रोद्र रूप का दर्शन इन्हें कराती !

।तभी महिषासुर ने देखा - उसके बगल में खड़े दो भक्त उसे तिरछी निगाहों से घूर रहे है । महिषासुर शंकित हो उठा- कहीं इन्होने मुझे पहचान तो नहीं लिया ? यदि ऐसा हुआ तो ये मुझे पकड़ कर फिरसे उस त्रिशूल के नीचे फिट कर देंगे , ओर तब क्या वह भाग सकेगा ? वह धीरे से मुड़कर खिसकने को हुआ , तो उन दो भक्तों ने उसके हाथ पकड़ लिए। वे फुसफुसाए :-

--" डरो मत ! हम शुम्भ- निशुम्भ है । हमने तुम्हे पहचान लिया है । "
--" अरे शुम्भ निशुम्भ !!तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो ?"
-- " वही कर रहे है जो तुम कर रहे हो ।"
- " दुर्गा के दर्शन ?"
- "हाँ उस समय तो हम उन्हें ठीक से देख ही नहीं पाए थे- इस समय वे स्वयं ही दर्शन दे रही है । "
-- " लकिन अगर उन्होंने हमें पहचान लिया तो ?"
--" चिंता मत करो । हम भक्तों का चोला पहने हुए है , माँ अपने भक्तों को पुत्रों की तरह चाहती है । "
--" ठीक है ! किन्तु उन देवताओं का क्या हुआ- जिनकी सहायता के लिए दुर्गा ने अवतार लिया था ? "
--" कौन देव ? "
--" अरे वही - इन्द्र और उनके साथी - जो स्वर्ग को अपनी ' बपौती ' मानते थे और  सदैव  स्वर्ग पर राज्य करना चाहते थे।"
-- " अब ना स्वर्ग है और ना इन्द्र !!यह कलियुग है -अब सिर्फ 'नरक ' है , चारों और नरक और एक नहीं , हजारों इन्द्र है जो नरक के राजा हमेशा बने रहना चाहते है ।"

महिषासुर ने संतोष की सांस ली.आखिर वह कलियुग आ ही गया था जिसके लिए असुरों ने हजारों वर्ष तक संघर्ष किया था ! .मांस मदिरा की अब कही कोई कमी न रही होगी - उसने सोचा।

--" और हमारी असुर जाति का क्या हुआ? वे कुछ बचे या नहीं ? "- महिषासुर ने कुछ शंकित हो कर जानना चाहा।

शुम्भ - निशुम्भ ने हंसकर चारों और फैले भक्तों की और इशारा किया- " ये सभी असुर है । देवता कलियुग में नहीं रहते ,वे या तो स्वयं मर जाते है या फिर मार दिए जाते है ।"

महिषासुर अब पूरी तरह आश्वस्त हो गया .फिर भी अपनी बची हुई शंका के समाधान के लिए शुम्भ से पूछा- --" दुर्गा देवी इन असुरों को पहचान क्यों नहीं पाती है ? "
--" क्योंकि इन्होने उसे एक सुन्दर स्त्री के स्वरुप में ढाल दिया है .तुम  लाउड स्पीकर पर बजते उस भजन को सुन रहे हो ?" महिषासुर ने कान लगाया । दूर से भजन की तार सप्तक में चीखती हुई आवाज़ में गायक के स्वर कानों को भेदने की कोशिश कर रहे थे । भजन में माता के सोलह श्रृंगार का वर्णन हो रहा था ।
--" तुम सुनो ! भक्त माँ के सोलह श्रंगार का वर्णन कर रहा है । वह उनकी बिंदी, नथनी, कुंडल, हार, वस्त्र पायल, के बारे में बता रहा है ।"
--" हाँ ! वह चढ़ावे में इन सब को माँ को दान करने की पंक्तियाँ गा रहा है । "
--" हाँ ! उसकी निगाह में , ' माँ ' एक सजी धजी , सोंदर्य युक्त स्त्री है .जिसका नख शिख वर्णन वह कर रहा है ।"
---" धिक्कार है !! -  महिषासुर  का मन उद्वेग से भर गया । क्या ये उसके पुत्र है ? क्या ये भक्त है ?
---"हमने तो सुना था - बाद में विष्णु ने " राम " के रूप में भी अवतार लिया था .जिनकी भक्ति उनके सभी भाइयों और अनुचर ' हनुमान ' ने की थी । उन्होंने तो " माँ " स्वरूपा ' सीता ' के चरणों से ऊपर उन्हें कभी देखा भी नहीं । -"
----" वे सिर्फ भक्त थे - सच्चे भक्त !!,,,,वस्तुतः ये भक्त, 'भक्त' नहीं 'असुर ' ही है ।

महिषासुर को पछतावा हुआ । - ' काश हमने दुर्गा को उस समय स्वर्णिम आभूषणों  का एक सेट और श्रृंगार का सामान भिजवा दिया होता '। तो यह नौबत ही न आती '।

शुम्भ- निशुम्भ हँसे !- बोले- --" दुर्गा 'स्त्री 'नहीं थी । वह तो  'शक्ति' थी .सिर्फ शक्ति। वह तो सिर्फ हमारे वध के लिए ही जन्मी थी ।"
----" क्या स्त्री और शक्ति में कोई फर्क है ? "
--" हां ! 'स्त्री ' पुरुषों के आधीन रहती है और 'पुरुष'-'  शक्ति के  आधीन ।"
---'तब दुर्गा हमारे सामने स्त्री स्वरुप में ही क्यों आयी ?'
 --" ताकि हम उसे अपने आधीन करने की कुचेष्टा करे और वह हमें अपने आधीन करले ।"
- - "क्या प्रत्येक स्त्री ऐसा कर सकती है ?"
---" कर सकती है - यदि वह यह जान ले की वह सिर्फ स्त्री का स्वरूप धारण किये है - वास्तव में वह  शक्ति  है ।"
---'लकिन अब असुर मूर्ख नहीं है । वे स्त्री को सिर्फ स्त्री बनाये रखने की कला जान चुके है । - वे उसे किंचित भी 'भान ' नहीं होने देना चाहते है की वो शक्ति  भी है ।"
----" बिलकुल ठीक !! असुर उसे कोमलांगी बनाने के लिए नए नए प्रसाधन बना रहे है । स्त्रियाँ घंटो दर्पण निहारती है । उन्हें यह याद दिलाया जाता है की वे सिर्फ पुरुषो को रिझाने के लिए ही बनी है ।
----" इस आर्यावत में एक बोलीवुड है - जहां स्त्रियाँ नृत्य और सोंदर्य का प्रतिमान है । अधिकतम स्त्रियाँ उसी स्वरुप को धारण करना चाहती है ।

" ' काश ! हमने उस समय एक 'दर्पण' दुर्गा के लिए भेज दिया होता । '- महिषासुर ने फिर उन्सास भरी ।

--" मूर्ख !- " - शुम्भ निशुम्भ फुसफुसाए-   " उस समय हमारे पास दर्पण थे ही कहाँ ? - सिर्फ कुछ दर्पण स्वर्ग में इन्द्र के पास थे जिनमे ' मेनका ' , ' रम्भा', जैसी अप्सराएँ अपना सोंदर्य निहार कर इन्द्र के सामने नृत्य करने में मग्न रहती थी .--"और फिर मेने तुमसे कहा न,,,!,,,, " दुर्गा " तो सिर्फ एक ' शक्ति ' थी ।

- सही है !" - महिषासुर ने स्वीकारोक्ति में सर हिलाया ।

तभी आरती ख़त्म हो गयी। भक्तों ने हाथ ऊँचे उठा कर नारा लगाया - " सत्य की जय हो ' , अधर्म का नाश हो', प्राणियों में सद्भाव हो' -' जय मातादी ' । सभी भक्त तेजी से आरती लेने , और प्रसाद ग्रहण करने आगे बढे । शुम्भ- निशुम्भ , और महिषासुर खुद को छिपाने के लिए एक आड़ में हो गए।

 वहां दो लोग अँधेरे में पहले ही खड़े बतिया रहे थे .-एक ने कहा -

---" देखिये !! हम प्रकट रूप में भले ही इस काम को नहीं करने की घोषणा करते है , किन्तु आप जानते है - हमें पैसा कमाने के लिए भी तो क्लीनिक चलाना पड़ता है ।"
--" भ्रूण परीक्षण  में क्या आया ?''
--" कन्या"
--हम कन्या नहीं चाहते - आप क्या कर सकते है ?'
पहला हंसा। -- " जैसा आप चाहें ।"
    दूसरे  ने जेब में हाथ डाला , नोटों की एक गड्डी  निकाली और पहले के हाथ में थमा दी । पहला बोला --
" आजकल नवरात्रि चल रही है , नवमी को हमारे यहाँ ' कन्या भोज ' है , आप दशहरे के दुसरे दिन रात में पेशेंट को हमारे यहाँ भर्ती करदें ।-अब चलते है । मुझे आरती भी लेना है ।"

शुम्भ- निशुम्भ और  महिषासुर  ने प्रश्नवाचक मुद्रा में एक दुसरे को घूरा !
,,  .शुम्भ हंसा- बोला- ' पहले वाले की इस शहर में क्लिनिक है , वह सर्जन है ।
---" वह क्या करने वाला है ?"
---- ' एक  शक्ति  के जन्म को रोकने का काम "।
---" क्या वह असुर है ?'
---" उससे बड़ा असुर तो वह है जिसने नोटों की  गड्डी  उसे थमाई है ।"
---' ये असुर ऐसा क्यों कर रहे है ' ?
---" वे अपनी प्रजाति में सिर्फ असुरों की संख्या ही बढ़ाना चाहते है । भूले से यदि कोई  शक्ति  जन्म ले लेगी तो असुरों के विनाश की पूरी संभावनाएं है ।"
---" तो  क्या वह स्त्री मान जाएगी , जिसे माँ बनना है ।?'
---" जिसने नोटों की   गड्डी  दी है - वह उस स्त्री का पति है ! ,,,.उसकी स्त्री उसके आधीन है  !

,,,,,,, 'काश !! हम दुर्गा को अपनी पत्नी बनाने में सफल हो जाते '। -- महिषासुर ने फिर उसांस भरी ।

----" महिषासुर !! तुम फिर दुर्गा को याद करने लगे । मेने कहा न की वह सिर्फ शक्ति  थी ।- स्त्री नहीं । "
----" क्या पत्नी -' शक्ति  ' का रूप नहीं ले सकती है ? "
---" ले सकती है - यदि उसकी मातृत्वशक्ति  जाग जाए । "
----" तो फिर उसे यहाँ पंडाल में आकर , इस दुर्गा मूर्ति के दर्शन कर लेना चाहिए। शायद उसकी मातृत्व शक्ति जाग जाए । "

निशुम्भ ने  व्यंग्य  से कहा - " यहाँ तो सभी माँ के पुत्र है , पुजारी से लेकर भक्तों की पूरी भीड़ में पुत्र ही पुत्र है । तुमने उन भजनों में नहीं  सुना  ? जहाँ भक्त स्वयं को 'कपूत' कह रहे है फिर भी माता से आशा करते है की वह कुमाता न हो । "

महिषासुर भले ही असुर था , लकिन सतयुगी असुर होने के कारण उसकी आत्मा में थोड़ी संवेदन शीलता बची हुई थी ,,,,.वह विचिलित हो उठा ।

---" क्या इन असुरों का काम बिना स्त्रियों के चल जाएगा ? "
-- ' उन्हें स्त्रियाँ नहीं चाहिए। ' अप्सराएँ' चाहिए । अप्सरा एक से अधिक पुरुषों से प्रणय कर सकती है ।"
---" कलियुग में विज्ञान का बोलबाला है । प्रत्येक घर में स्थापित टी:वी कई कथाएं दिखाता है , जिसमे एक स्त्री कई पुरुषो को चाहती है - वे अप्सरा संस्कृति की तरह जेठ, देवर, जीजा आदि में कोई फर्क नहीं करती। फिर टेस्ट ट्यूब बेबी भी संतान उत्पत्ति का नया मार्ग है जो शीघ्र ही असुर समाज में व्याप्त हो जाएगा ।
---" तो क्या वह असुर एक अजन्मी शक्ति को नष्ट करवाने में सफल हो जाएगा ?"
---" यदि नहीं हो पाया तो , जन्म के बाद कन्या को कही वीरान जगह पर छुड़वा देगा । बच गयी तो अनाथालय में पलेगी - उसका भाग्य ही उसका भविष्य होगा। "
--" शिव !! शिव !! - महिषासुर द्रवित हो उठा , वह शीघ्रता से छिपने वाले स्थान से हट कर बाहर आया और  दौड़ता  हुआ सीधे दुर्गा प्रतिमा के सामने जाकर खड़ा हो गया । माँ तब भी स्निग्ध भाव से मुस्करा रही थी । महिषासुर ने हाथ जोड़े और रुंधे कंठ से बोला -

___" देवी !! तुम माँ नही , परणीता भी नहीं । तुमने किसी को जन्म नहीं दिया , प्रसव वेदना नहीं झेली , सिर्फ मुझे मारने के लिए ही तुम अवतरित हो गयी थी । वह भी देवताओं की स्वार्थ सिध्धि के लिए । किन्तु रण में   मैनें  तुम्हे एक आदि शक्ति के रूप में देखा था - सच कहूँ , तो तभी मैनें  तुम्हे 'नमन ' कर लिया था । तुम अब माँ का रूप धारण न करो । सिर्फ शक्ति बनो , और सबसे पहले अपने आदि स्वरूप - " स्त्री" के रोम रोम में बस जाओ । तुम्हारे पुत्र तुम्हे पूजा कर के बहला रहे है । और तुम अपने ही स्वरूप - स्त्री' को नहीं निहार पा रही हो । वे निरंतर छीण हो रही है - नष्ट  हो रही है । याद रखो देवी !! यदि स्त्री क्षीण  हो गयी तो कुछ नहीं बचेगा । प्रकृति भी नहीं । तुम्हारे ये पुत्र नौ दिन तक , तुम्हारी मूर्ति को पूज कर नदी में बहा देंगे .लकिन अगर तुम स्त्रियों में जाग गयी, तो फिर हर पल अपना भान संसार में कराती रहोगी। हो सके तो अपने ये नौ दिन स्त्रियों को दान कर दो , ताकि समाज उन्हें पूज सके। वास्तव में वे ही - "माँ " के रूप का मर्म जानती है ।
एक बार देवों के आव्हान पर तुम मेरे वध के लिए अवतरित हो गयी थी । अब मानवता के लिए मेरे आव्हान पर फिर से अवतरित हो । सुर असुर तो सतयुग में ही  नष्ट  हो गए । अब तो हम लोगों की सम्मलित प्रजाति के स्मृति चिन्ह,  ये मानव इस प्रथ्वी पर शेष बचे है । इन्हें तुम ही बचा सकती हो ।
में तुम्हारे त्रिशूल के नीचे पड़ा रह कर वेदना झेलने को तैयार हूँ । किन्तु तुम्हे मूर्ति के रूप में नहीं देखना चाहता । में तो रण में रणचंडी स्वरुप में हर स्थान पर हुंकार भर कर दुष्टों को  नष्ट  करते हुए तुम्हे देखना चाहता हूँ। क्योंकि तुम्हारा   वही स्वरुप मेरे लिए  भी नमन करने  योग्य है ।

इतना कह कर महिषासुर  चुपचाप जाकर त्रिशूल के नीचे लेट गया। सिंह ने अपना पंजा उठा कर फिर उसके नितम्ब पर रख दिया ।
किसी ने नहीं देख पाया - माँ भी नज़र मोड़  एक बार  महिषासुर की और देख कर मुस्कराई , और फिर उनकी आँखे अचानक 'रक्तवर्णी' हो गयी ।

 ,,,,,,सभाजीत

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

सत्य कि खोज - - " क्षुधा "



  ,,,,," बोध " ,,,,,,
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श्रेष्ठि  पुत्र ,,,'प्रसून  '  ने ' सत्य' को जानने का निश्चय किया ! 

उसने घर त्याग कर जंगल मे साधना करने का संकल्प लिया !

सबसे पहला विरोध किया षोडसी पत्नी ने !

नेत्रों मे अविरल अश्रु धार लिए वह बोली -

" नाथ ! मेरे इस सोन्दर्य , लावण्य , अनुराग से विमुख होकर आप कहाँ चले ?"

" देवि ! यह सोन्दर्य , लावण्य , अनुराग सत्य नहीं ! क्या आप म्रत्युपरन्त इस सोन्दर्य की स्वामिनी रह सकेंगी ... ? " प्रसून ने शांत भाव मे प्रति प्रश्न किया !

-"नही ! किंतु अग्नि को साक्षी मानकर जो मेने आपकी सेवा करने का प्रण किया , वह मे कैसे पूर्ण करूँगी ?"

-" विधाता यदि चाहेगा तभी आप ऐसा कर सकेंगी , अगर विधाता ने आप को ही रुग्ण कर दिया तो क्या आप मेरी सेवा का संकल्प पूरा कर सकेंगी देवी ..?"- प्रसून ने मुस्करा कर पूछा !

पत्नी ने असहाय होते हुए अंतिम तर्क प्रस्तुत किया --

"आपने अग्नि के सामने ,मेरी इच्च्छाओं को सम्मान देने का
प्रण लिया था , क्या मेरी इच्च्छा के विरुद्ध भी आप मुझे छोड़ कर जंगल जाएँगे ?

-" यह बात तो आप पर भी लागू है देवी ! क्या मेरी इच्छाओं के विरुद्ध आप मुझे रोकना चाहेंगी ?क्या मेरी इच्छाओं का सम्मान आप नही करना चाहेंगी ..?"- प्रसून ने तर्क को तर्क से ही काटते हुए फिर प्रति प्रश्न किया !

पत्नी निरुत्तर हो गई !

प्रसून ने शांत भाव से कहा -
"फिर में आपको त्याग कर नही जा रहा हूँ देवी ! सत्य की खोज हेतु एकांत मे जा रहा हूँ !आप अर्धांगिनी है , मुझे हंस कर विदा करें !"

पत्नी ने एक पल प्रसून को गौर से देखा, और फिर एक ओर हट गई !

प्रसून ने दो कदम आगे बढ़ाए !
सामने माँ थी !

माँ ने पूछा --
"क्या मेरे दूध से उऋण हुए पुत्र ?"

"माँ आपने क्या दूध मुझे ऋण मे पिलाया था ?"- प्रसून ने किंचित आश्चर्य से पू छा !

"नही पुत्र ! मेने तुम्हे दूध पुत्र भाव मे पिलाया है , किंतु क्या तुम्हारा यह कर्त्यब्य नही की तुम व्रद्ध अवस्था मे हमारी सेवा करो ..?"

"आपकी सेवा के लिए मेरी पत्नी यहा है माँ !, मेरी अर्धांगिनी !मेरा आधा अंग होने के नाते , मेरी अनुपस्थिति मे आपके प्रति मेरे कर्त्यब्य का निर्वाह वह करेगी !"- प्रसून ने शांत भाव मे पत्नी की ओर देखते हुए कहा !
पत्नी ने सहमति मे सिर हिलाया !

माँ ने हार नही मानी !
प्रसून के सिर पर हाथ फेरते हुए वह बोली _

"माँ का मौह त्याग कर तुम कैसे जा सकते हो पुत्र ?"

" इस मौह से भी बड़ा सत्य का मौह है माँ ! में उसी को जानने के लिए जा रहा हूँ ! आप मुझे अनुमति दें !"

इतना कह कर प्रसून ने दो कदम और आगे बढ़ाए !

पिता शांत भाव मे आगे खड़े थे !

गंभीर स्वर मे पिता ने पूछा --

" ग्रहस्थ जीवन मे रहकर क्या सत्य की खोज नही हो सकती पुत्र ..?"

" संभवतः , नही तात !"

" भला क्यों ?"

" एकाग्रता के अभाव के कारण !"

"क्या जीवन मे प्रतिदिन सत्य हमारे सामने नही आता ?"

"आता है ! लकिन वह अस्‍पस्‍ट है !अस्पष्ट वास्तु कभी सत्य नही हॉती ! ग्रहस्थ जीवन मे सत्य सिर्फ़ झलक देता है - वह मेरे लिए पर्याप्त नही !

"एकाग्रता क्या है ..?"

" बिना व्यवधान के , शांत मन से किसी एक बिंदु पर मनन करने की क्रिया !"

"यह कहाँ मिलेगी ?"

"शायद ऐसी जगह , जहाँ कोई और पक्ष मेरे सामने शेष ना रहे !"

पिता ने फिर कोई प्रश्न नही किया !

वे एक ओर हट गये !

बाहर द्वार पर बाल-सखा ,मित्र, अन्य रिश्तेदार भीड़ लगाए खड़े थे !
प्रसून ने फिर किसी की ओर नही देखा - किसी से बात नही की !

चुपचाप सिर झुका कर वह घर से बाहर निकल कर गाव पर कर पार कर जंगल की ओर बढ़ गया!


गहन जंगल मे , एक विशाल वटवृक्ष के नीचे स्वच्छ शिला पर बैठ कर प्रसून ने अपनी साधना प्रारंभ की !

उसने महसूस किया कि उसकी साधना के मार्ग मे सबसे पहली अड़चन 'क्षुधा ' है !

इसलिए साधना के पहले चरण मे उसे उचित लगा कि वह' क्षुधा 'पर नियंत्रण करे !

उसने व्रत लिया कि वह भोजन नही करेगा !
कमंडल मे जल भरकर वह पद्मासन मे , एकाग्रता के साथ , आँखें बंद कर मनन करने बैठ गया !

-
जंगल रमणीक था !

वट व्रक्ष के चारों ओर कई प्रकार के और वृक्ष लगे थे ! जो फल दार थे !

वृक्ष से सॅट कर एक पयस्वनि बह रही थी !

वृक्ष पर कई पक्षियों का वास था !, जिनकी चहचाहाहाट से जंगल गुँजायमान हो रहा था !

प्रसून को बिना कुछ खाए पिए , एक रात, एक दिन व्यतीत हो चुका था !
दूसरे दिन मध्यान्ह मे अचानक एक वृक्ष पर शोर मच गया !
डाल पर रहने वाले पक्षी ज़ोर ज़ोर से चीख रहे थे !

प्रसून ने बंद नेत्र खोले,देखा -

एक सर्प डाल पर चढ़ा हुआ था !वह कॉटर मे रख्खे पक्षियों के अंडों कि तरफ बढ़ रहा था ! पक्षी चीख चीख कर क्रंदन कर रहे थे !, किंतु सर्प ने अपने लक्ष्य क़ी तरफ निरंतर बढ़ कर पक्षियों के अंडों को उदरस्थ कर लिया !उसने पक्षियों के क्रंदन , विरोध क़ी बिल्कुल परवाह नही क़ी !

प्रसून को यह द्रश्य देख कर , पक्षियों के प्रति बड़ी करुणा उत्पन्न हुई ! उसकी आँखों मे दो अश्रु बिंदु आ गए !

सर्प विषधर था !उसके कार्य मे बाधा डालना संभव नही था , इसलिए पसून ने अपने नेत्र बंद कर लिए !
थोड़ी ही देर मे वातावरण पुनः , पूर्ववत शांत हो गया !

प्रसून ने एकाग्र चित्त होने क़ी कोशिश क़ी , तभी पुनः पक्षियों का कलरव बढ़ गया !

किसी बड़े पक्षी के डेनों क़ी छटपटाहट को सुन कर प्रसून ने फिर आँखे खोली !

एक अन्य द्रश्य सामने था !

एक बाज़ उस सर्प पर झपट्टा मार रहा था , जिसने अभी अभी पक्षियों के अंडे खाए थे !सर्प आड़ा तिरच्छा होकर भाग रहा था , किंतु बाज़ ने उसे फ़ौरन ही अपने नुकीले पंजों मे कस लिया!
छटपटाते सर्प को पंजों मे दबा कर बाज़ दूर आसमान मे उड़ गया !

एक मृत्यु दूसरी मृत्यु का ग्रास बन गई !

प्रसून क़ी आँखों मे इसबार करुणा नही जागी ! उसने अपनी आँखे फिर बंद कर ली !

आँखें बंद होने पर , हृदय मे बैठे 'ग़ूढ प्रसून' ने , 'स्थूल' , शारीरिक प्रसून से बात प्रारंभ क़ी !

- " सर्प ने पक्षियों के अंडे खाए, तुम्हें वह देख कर करुणा जागी ! !
किंतु छटपटाते सर्प को बाज़ ले गया , तुम्हें वह द्रश्य देख कर करुणा क्यों नही जागी ?"

प्रसून को तुरंत कोई उत्तर नही सूझा !
थोड़ी देर मनन करके प्रसून बोला !-

" करुणा का कारण पक्षियों का क्रंदन था ! 'क्रंदन' प्राणियों मे संवेदनाएँ उत्पन्न करता है !"

-" संवेदनाएँ क्या है ?"

'किसी एक प्राणी को हुई वेदना का अनुभव जब समान रूप स कोई दूसरा प्राणी करे !"

" 'क्या वह स्थाई है ? "

" नही वह तत्कालिक है "

" तब स्थाई क्या है ?"
प्रसून थोड़ी देर शांत रहा ! फिर उसने उत्तर दिया -

" स्थाई तो सिर्फ़ सत्य है "

अंदर बैठा ग़ूढ प्रसून हंसा ! उसने कहा -

" इस घटना मे सत्य क्या है ? "

" सत्य तो 'क्षुधा' है "

" हाँ वह सत्य है !सर्प ने अंडे इसलिए खाए, क्योंकि वह क्षुधा ग्रस्त था !बाज़ ने सर्प को इसलिए खाया क्योंकि वह क्षुधा ग्रस्त था !- क्षुधा जीवन का आधार है , किंतु मूल मे वह विनिस्टीकरण का 'कारण' है !"

"विनिशटिकरण से तुम्हारा तात्पर्य ?"

"विनिश्टीकरण दोनो अर्थों मे है ! क्षुधातुर हो कर एक जीव दूसरे जीव को नॅस्ट करता है !नॅस्ट होकर एक जीव दूसरे जीव के जीवन का आधार बनता है ! दूसरी ओर क्षुधा क़ी अवहेलना स्वयं के जीवन को नॅस्ट करती है ! इस प्रकार दोनो स्थिति मे क्षुधा विनिस्तिकरण का कारक है !"

"तो क्या विनिस्टीकरण सत्य है >"

"हाँ !! विनिस्टीकरण सत्य है ! -
गतिमान चक्र का मूल आधार है विनिस्टीकरण ! इसलिए वह परम सत्य है ! हर पदार्थ, हर जीव , हर सृष्टि का विनिस्टीकरण आवश्यक है ताकि गति चक्र चल सके !
_ विनिस्टीकरण से विचिलित होना अविवेक पूर्ण है !

" और जीव क़ी संवेदनाएँ ?"

"-संवेदनाएँ , जैसा क़ी तुम्हने कहा- तत्कालिक है ! वह सत्य नही !"

प्रसून के अंदर कहीं एक ज्योति पुंज क़ी छ्होटी सी लौ आलोकित हो उठी !उसे बोध हुआ - क्षुधा अपरिहार्य है ! उससे दूर भागना संभव नही !

" तब क्या उसे नियंत्रित करना उचित होगा ? "-उसने ग़ूढ प्रसून से प्रश्न किया !

"- नियंत्रण किसी भी संचालन के लिए अति आवस्यक क्रिया है ! -इसलिए खुद के शरीर को संचालित करने के लिए क्षुधा पर नियंत्रण करना ज़रूरी है ! किंतु उसकी अवहेलना करना अप्राकितिक और अनुचित है !- तुम क्षुधा को नही जीत सकोगे !"

प्रसून ने आँखें बंद कर ली !अंदर क़ी ज्योति का धवल प्रकाश बढ़ रहा था !यह प्रकाश स्थाई प्रकाश था !

तभी वृक्ष से एक फल , पृथ्वी पर आकर , उसकी अंजुलि मे गिरा !
प्रसून ने शांत भाव से उस फल को देखा !फिर उसे उठाकर अपने , कमंडल मे रख लिया !

समय ब्यतीत होने लगा !

अभी उसके सामने सत्य के कई पक्ष उजागर होना बाकी थे !
--


 (क्रमशः ,,,,,,)

सभाजीत "सौरभ"

सत्य की खोज

रेष्ठी पुत्र प्रसून ने ' सत्य' को जानने का निश्चय किया !

उसने घर त्याग कर जंगल मे साधना करने का संकल्प लिया !

सबसे पहला विरोध किया षोडसी पत्नी ने !

नेत्रों मे अविरल अश्रु धार लिए वह बोली -

" नाथ ! मेरे इस सोन्दर्य , लावण्य , अनुराग से विमुख होकर आप कहाँ चले ?"

" देवि ! यह सोन्दर्य , लावण्य , अनुराग सत्य नहीं ! क्या आप म्रत्युपरन्त इस सोन्दर्य की स्वामिनी रह सकेंगी ... ? " प्रसून ने शांत भाव मे प्रति प्रश्न किया !

-"नही ! किंतु अग्नि को साक्षी मानकर जो मेने आपकी सेवा करने का प्रण किया , वह मे कैसे पूर्ण करूँगी ?"

-" विधाता यदि चाहेगा तभी आप ऐसा कर सकेंगी , अगर विधाता ने आप को ही रुग्ण कर दिया तो क्या आप मेरी सेवा का संकल्प पूरा कर सकेंगी देवी ..?"- प्रसून ने मुस्करा कर पूछा !

पत्नी ने असहाय होते हुए अंतिम तर्क प्रस्तुत किया --

"आपने अग्नि के सामने ,मेरी इच्च्छाओं को सम्मान देने का
प्रण लिया था , क्या मेरी इच्च्छा के विरुद्ध भी आप मुझे छोड़ कर जंगल जाएँगे ?

-" यह बात तो आप पर भी लागू है देवी ! क्या मेरी इच्छाओं के विरुद्ध आप मुझे रोकना चाहेंगी ?क्या मेरी इच्छाओं का सम्मान आप नही करना चाहेंगी ..?"- प्रसून ने तर्क को तर्क से ही काटते हुए फिर प्रति प्रश्न किया !

पत्नी निरुत्तर हो गई !

प्रसून ने शांत भाव से कहा -
"फिर में आपको त्याग कर नही जा रहा हूँ देवी ! सत्य की खोज हेतु एकांत मे जा रहा हूँ !आप अर्धांगिनी है , मुझे हंस कर विदा करें !"

पत्नी ने एक पल प्रसून को गौर से देखा, और फिर एक ओर हट गई !

प्रसून ने दो कदम आगे बढ़ाए !
सामने माँ थी !

माँ ने पूछा --
"क्या मेरे दूध से उऋण हुए पुत्र ?"

"माँ आपने क्या दूध मुझे ऋण मे पिलाया था ?"- प्रसून ने किंचित आश्चर्य से पू छा !

"नही पुत्र ! मेने तुम्हे दूध पुत्र भाव मे पिलाया है , किंतु क्या तुम्हारा यह कर्त्यब्य नही की तुम व्रद्ध अवस्था मे हमारी सेवा करो ..?"

"आपकी सेवा के लिए मेरी पत्नी यहा है माँ !, मेरी अर्धांगिनी !मेरा आधा अंग होने के नाते , मेरी अनुपस्थिति मे आपके प्रति मेरे कर्त्यब्य का निर्वाह वह करेगी !"- प्रसून ने शांत भाव मे पत्नी की ओर देखते हुए कहा !
पत्नी ने सहमति मे सिर हिलाया !

माँ ने हार नही मानी !
प्रसून के सिर पर हाथ फेरते हुए वह बोली _

"माँ का मौह त्याग कर तुम कैसे जा सकते हो पुत्र ?"

" इस मौह से भी बड़ा सत्य का मौह है माँ ! में उसी को जानने के लिए जा रहा हूँ ! आप मुझे अनुमति दें !"

इतना कह कर प्रसून ने दो कदम और आगे बढ़ाए !

पिता शांत भाव मे आगे खड़े थे !

गंभीर स्वर मे पिता ने पूछा --

" ग्रहस्थ जीवन मे रहकर क्या सत्य की खोज नही हो सकती पुत्र ..?"

" संभवतः , नही तात !"

" भला क्यों ?"

" एकाग्रता के अभाव के कारण !"

"क्या जीवन मे प्रतिदिन सत्य हमारे सामने नही आता ?"

"आता है ! लकिन वह अस्‍पस्‍ट है !अस्पष्ट वास्तु कभी सत्य नही हॉती ! ग्रहस्थ जीवन मे सत्य सिर्फ़ झलक देता है - वह मेरे लिए पर्याप्त नही !

"एकाग्रता क्या है ..?"

" बिना व्यवधान के , शांत मन से किसी एक बिंदु पर मनन करने की क्रिया !"

"यह कहाँ मिलेगी ?"

"शायद ऐसी जगह , जहाँ कोई और पक्ष मेरे सामने शेष ना रहे !"

पिता ने फिर कोई प्रश्न नही किया !

वे एक ओर हट गये !

बाहर द्वार पर बाल-सखा ,मित्र, अन्य रिश्तेदार भीड़ लगाए खड़े थे !
प्रसून ने फिर किसी की ओर नही देखा - किसी से बात नही की !

चुपचाप सिर झुका कर वह घर से बाहर निकल कर गाव पर कर पार कर जंगल की ओर बढ़ गया!


गहन जंगल मे , एक विशाल वटवृक्ष के नीचे स्वच्छ शिला पर बैठ कर प्रसून ने अपनी साधना प्रारंभ की !

उसने महसूस किया कि उसकी साधना के मार्ग मे सबसे पहली अड़चन 'क्षुधा ' है !

इसलिए साधना के पहले चरण मे उसे उचित लगा कि वह' क्षुधा 'पर नियंत्रण करे !

उसने व्रत लिया कि वह भोजन नही करेगा !
कमंडल मे जल भरकर वह पद्मासन मे , एकाग्रता के साथ , आँखें बंद कर मनन करने बैठ गया !

--- सभाजीत 'सौरभ'

बुधवार, 7 मार्च 2012

(१)
काह कहऊ घर आँगन आज ,
हुडदंग मच्यो , सब ओर घन्यो री...,
दोडा दौरी, पटका-पटकी , ॥,
झूमा- झटकी , हरकत लर्कोउरी...!
घरवारी आय लगी डाटन,
घर काय घुसे रसहीन अघोरी ??
बाहर कड़ काय नहीं खेलत ,
सब खेल रहे देखो -" होरी" !! ...

(२)
मन में कोऊ रंग नहीं जाग्यो ,
जब यारान आय रंगी ड्योरी ,
तन में ना कोऊ हुलास उठी ,
जब भाभी गाल मल्यी रोली ,
बीबी मुसकाय उडेल्यो रंग ,
डोल्यो ना अंग , ना आँख उघेरी ,
'गुड-फील' भयो जब 'सारी' आय ,
कही -'जीजा ' खेलो होरी॥!!

(*३)
दूरी से रोज लडात रही ,
नैनन संग पेंच जो चोरी-चोरी॥,
आय अचानक ठांड भई ,
ले रंग , अबीर , गुलाल रोरी ,
मटकाय नयन बोली छोरन से ,
अंकल शर्ट दिख्ये कोरी,
रंग देऊ इन्हें ऐसे रंग से ॥,
कारी काया  होवे गोरी..!!

(४)
नज़र लुकाय जो भगत रही ,
वो नज़र लडाय खडी हो ली ॥,
जिन होठन कबहु ना बात सुनी ,
वो ठिल ठिलाय की खूब ठिठोली ॥,
जो रोज नजर मटकात रही ॥,
वो नज़र झुकाय बनी भोली ,
जिनके मन में जो हुलास रही ,
वो निकर गयी जो खेली ='होली'॥





--सभाजीत