सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

लिटिल ड़ाल

गहरे पानी पैठ

" गहरे पानी पैठ ........." !!

मानव जीवन में ' मित्र' शब्द का अद्भुत अस्तित्व है ॥

अन्ग्रेजी में जहाँ इस सम्बन्ध को एक शब्द - " फ्रेंड " के नाम से सीमित दायरे में बाँध दिया गया है , वहीं हिंदी में इस को कई नामों --' मित्र ', 'सुह्रद', 'सखा' से परिभाषित किया गया है । मित्रता वह अनुभूति है जिसे लिंग , स्थान , जाति, के बन्धनों में नहीं बांधा जा सकता । हिंदी में जहाँ पुरुष मित्र को ' सखा' के रूप में संबोधित किया गया है वहीँ ' स्त्री ' मित्र को ' सखी ' के रूप में । वृन्दावन की कई स्त्रियाँ , कृष्ण की सखी थी - और कृष्ण ने मित्र भाव से इनके साथ जीवन जिया ।

मित्र भाव - " सम- भाव " है । इसमें ना तो कोई बड़ा होता है , ना कोई छोटा । इसमें उम्र भी कोई अस्तित्व नहीं रखती । ' सम-भाव ' सामान अनुभूतियों , सामान विचारों , और सामान पसंद से उपजता है । यह निष्कपट , निष्कलंक होता है । बाल्य काल के मित्र इसी सम- भाव के साथ आगे बढ़ते है । कृष्ण की सखियाँ , कृष्ण को बिना देखे नहीं रह पाती थी - वे उनके साथ शरारतों में सम-भाव से सम्मलित होती थी । अपने - अपने दांव को निष्कपट भाव से खेलने वाले ये मित्र अनोखे थे - जो चोर- सिपाही का खेल क्रमशः खेलते रहते थे ।

मित्र भाव में 'ज्ञान ' की कोई भूमिका नहीं । ज्ञान मनुष्य के चारों ओरकई तर्क ,, कई दायरे खडा कर देता है , जो मित्र भाव में सर्वथा वर्जित है । " राम कथा " में " राम " सदेव ग्यानी के स्वरूप में ही हमारे सम्मुख आते है .इसी कारण उनके मित्रों की सूची शून्य है । " राम - सुग्रीव " अथवा " विभीषण - राम " मित्रता , उद्येश्यों की प्राप्ति के लिए की गई राजनेतिक संधि है , अतः मित्रता के दायरे में नहीं आती । यह विडम्बना ही है की राम के जीवन में मित्रता का नितांत अभाव है , जबकि कृष्ण का युवा काल " मित्र -रस " से रसा - पगा है । यही कृष्ण जब ग्यानी हो जाते है तो मित्रों को खो देते है । कृष्ण - अर्जुन का सम्बन्ध भी मित्रता के दायरे में नहीं आता , क्योंकि वहा " सम- भाव " नहीं है । ग्यानी कृष्ण जब अपनी बाल्य काल की सखियों को "अनासक्ति " का पाठ पढ़ाने की चेष्टा , अपने दूत " उद्धव " के जरिये करते है , तो उद्धव - " सम भाव ' के शब्द बाणों से आहत होकर , ज्ञान की अपनी क्षत - विक्षित पोथी को लेकर कृष्ण के पास वापिस लोट आते है ।

मनुष्य के अन्य सम्बन्ध सीमित है , किन्तु मित्रता के सम्बन्ध असीमित है । पिता का सम्बन्ध ' एक ' है , माँ का -एक , पत्नी का - एक , भाई बहिनों के - तीन चार , किन्तु मित्रता के सम्बन्ध असंख्य हो सकते है । यहीं आकर मित्र शब्द -" सखा" शब्द से भिन्न हो जाता है । सखा - " अस्तित्व " है और मित्र - " अनुभूति " । 'अस्तित्व' हमारे जीवन का 'सहभागी' होता है , जबकि 'अनुभूति ' विचारों से 'सहभागिता' करती है । सखा या सखी के सामने हम ह्रदय के पट पूरी तरह ख़ोल देते है , वह हमारी संवेदनाओं की सहभागिता करता है , निष्कपट , निष्कलंक भाव से , ओर हम अपना बोझ उतार कर उसे दे देते हीवह ब्प्झ जो हम अंतस में ढो रहे होते हैं , उसे मात्र सखा ही ग्रहण कर सकता है , मित्र दिलासा दे सकता है , उपाय बता सकता है, सहानुभूति प्रकट कर सकता है , हमें बोझ रहित नहीं कर सकता ।

पश्चिम से आई सभ्यता ओर तकनीक ने , मित्रता के दायरों को विशाल समुद्र में बदल दिया है । आधुनिक युग में मित्रता के लिए हमारे सामने भीड़ खड़ी है । हम जिसे चाहे , उसे मित्र के रूप में चुन सकते है । मित्रता के इस मंच को उत्पन्न करने वाली कई साइट्स आपस में व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता में संघर्ष रत है ओर लोगों को कई विकल्प देती है ओर - लोग अपनी अपेक्षाओं ओर सुविधाओं के हिसाब से इनका उपयोग करते है ।

युवा वर्ग में मित्रता का मानदंड - ' फेस ' है । वे चेट्स करना चाहते है । मनोरंजन मित्रता का उद्येश्य है । ओर अपने अकाउंट में अधिकतम संख्या में " हिट्स " जोड़ना चाहते है । इस व्यापारिक जगत में , विचारों के लिए उनके पास समय नहीं है । जबकि " वयस्क " " व्यक्ति , वहां वहां से तलाशकर जुगाड़े गए संदेशों से खुद को व्यक्त करना चाहते है । वे चाहते है की लोग उनको चिन्हित करें , वे पोपुलर हों । वे अपनी भावनाओं को फ़िल्मी गीतों के माध्यम से भी स्फुटित करते है ओर अपना सहभागी तलाशते है । आधुनिक काल खंड से प्रायः कट गया उम्र दराज़ व्यक्ति , विचारों को व्यक्त करने से डरता है , क्योकि वे विचार आधुनिक समाज को स्वीकार्य नहीं । ऐसे लोगों की संख्या इन मंचों पर लगभग नगण्य ही रहती है ।

स्त्रियाँ इन नायाब मंचो की शोभा होती है । दाम्पत्य जीवन की कठिन नाव पार सवार स्त्रियाँ , मित्रता की नाव पर भी एक पैर रखना चाहती है, किन्तु इसके लिए वे डरी सहमी भी रहती है । मित्रता का मुखौटा लगा कर , अपरिपक्व , असामाजिक तत्व उनसे अप्रसांगिक बातें करने का प्रयत्न करते है । इस लिए अधिकाँश स्त्रियाँ - " नो चैट " की तख्ती के साथ - अपने ज़ोन पर ताला लगा कर रावण से ठगे जाने की सभी संभावनाएं ख़त्म कर देती है । ये स्त्रियाँ विचारों की दुनिया में सहभागिता चाहती है , अपने विचार व्यक्त करना चाहती है , किन्तु इसके लिए जो मित्र उन्हें चाहिए , उन्हें इन मंचों पर ढूंढना उनके लिए कठिन होता है । अधिकतर पुरुष , मित्रता की आड़ में स्वच्छंद स्त्री मित्र की तलाश करता है , जबकि यथार्थ में कोई भी स्त्री कभी स्वच्छंद होती ही नहीं । वस्तुतः जो भी स्त्री- पुरुष स्वच्छंदता की परिभाषा में आते है , उनके लिए मित्रता कोई मायने नहीं रखती , क्योंकि वे मित्रता को एक खेल के रूप में ही लेते है ।
मित्रता के इस विशाल सागर में , आज मित्रता मछलियों की तरह तैर रही है । किन्तु सागर का पानी 'खारा' है - उसमें मिठास नहीं है । और इसीलिए मित्रता की उस स्वाभाविक मिठास की प्यास हमें तब भी बनी ही रहती है । " नो स्ट्रेंजर " के नारे के पीछे , हम अपरिचित नहीं रहते , किन्तु पूर्णतः परिचित भी नहीं होते । वस्तुतः संमाज से बड़ा कोई मंच , सखा या मित्रता के लिए हो ही नहीं सकता । अपने घर के दरवाज़े बंद करके हम पडोसी से बात चीत करने से भी कतराते है , किन्तु आकाशीय मार्ग पर चर्चा करके एक " कल्पनीय " समाज की सरंचना कर रहे होते है , जहां - " मुख- चित्रों " के पीछे छिपे , किसी अपने जैसे व्यक्ति की हमें तलाश होती है । यह एक मृग मारीचिका है जो मानसिक सूख तक सीमित रहती है ।
हमें अपने संसार को रचने की स्वतन्त्रता है सुख़ की अनुभूति हमारी अपनी है , वह जहां मिले उसे पाना हमारा अधिकार है । अपने विचारों पर टिपण्णी या तालियाँ पाकर हमें सूख या संतोष मिल सकता है , किन्तु मित्रता का - " सम भाव " नहीं । वह फिर भी हम से बहुत दूर रहता है । जैसा की मेने कहा - " सम-भाव " " अस्तित्व " है , " अनुभूति नहीं , इसलिए मंचीय मित्रता के साथ साथ , हमें अपने घरों के दरवाज़े खोल कर , पड़ोस में भी एक मित्र ढूंढना होगा । यह मित्र एक अस्तित्व होगा । यह मित्र आपसे मज़ाक कर सकता है , आपकी संवेदनाओं में शरीक हो सकता है , अन्याय के विरुध्ध कंधे से कंधा मिला सकता है और वैचारिक सहभागिता भी कर सकता है ।
अपने पड़ोस में ऐसे मित्र को ढूँढना एक कठिन बात है । क्योंकि मित्रता में " ज्ञान " वर्जित है और अस्तित्व पूर्ण मित्रता में 'ज्ञान' आड़े आता है । ज्ञान हमारे बीर्च " स्टेटस " की दीवार खड़ी करता है , और हम में अपने अस्तित्व का अहम् पैदा करता है .और इसी कारण मित्रता नहीं मिलती । कृष्ण यदि खुद को " इश्वर " स्वरुप में गोपियों के समक्ष प्रस्तुत करते तो वे उनके सखा नहीं बन सकते थे ।
कबीर ने कहा -
" जिन खोजा तिन पाइयां , गहरे पानी पैठ ॥,
हों बौरा डूबन दारा , रहा किनारे बैठ ।।"
मित्रता का मोती पाना है तो गहराई में उतरना ही होगा । किनारे बैठे व्यक्ति को , लहरों की सतह पर उतराते हुए मोती नहीं मिल सकते । 'दिया' अपने नीचे अन्धेरा रख कर दूर तक कालिमा से युध्ध करता है किन्तु उसे 'सूर्य ' नहीं कहा जा सकता । सूर्य की किसी भी दिशा में चारों और सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश ही है । मित्रता सूर्य की तरह है - जिसे अपने चारों और प्रकाशित होना ही चाहिए ।
------सभाजीत