मंगलवार, 3 जनवरी 2012

नट, नटी, और नाट्य

।।-' नट' , ' नटी ' और ' नाट्य ' ॥


नाट्य का जन्म , हमारे जीवन में , सामजिक बोध के जन्म के साथ ही होता है । घर का जब कोई ,नन्हा सदस्य , अपनी तोतली आवाज़ में अपने दादाजी , नानाजी , के बोलने की शैली का अभिनय करता है अथवा अपने चारों और फैले वातावरण में किसी पशु - पक्षी की ध्वनि की नक़ल करता है , तभी से वह नाट्य विधा से स्वयमेव जुड़ जाता है ।कालांतर में वयस्क होने तक वह अपने जीवन में विभिन्न चरित्रों के सान्निध्य में आता है , कुछ उसे सामान्य लगते है , कुछ असमान्य । असमान्य चरित्र उसकी स्मृति में अपनी विशिष्टताके कारण , लम्बे समय तक विद्यमान रहते है । कई बार असमान्य चरित्र के अनुकरण करने के कारण , व्यक्ति स्वयं वही चरित्र बन जाता है । नाट्य का सामजिक परिवेश और चरित्रों की विविधतता से बहुत ग़हरा सम्बन्ध है ।

शेक्सपियर , कालीदास के युग से लेकर आज तक , नाट्य लेखन की विधा ने कई रंग देखे है । समाज में मूल्यों की स्थापना हेतु , जब भी किसी चिन्तक को , आवश्यकता पड़ी , उसने साहित्य सृजन किया । गद्य-पद्य की रचनाओं को समझने में , सृजनकर्ता
के साथ ही , पाठक को भी ज्ञानी होना आवश्यक समझा गया , ताकि वह कथ्य के
साथ रचना के शिल्प का भी आनंद ले सके , किन्तु नाट्य लेखन सदेव कालजयी ही हुआ । कारण - वह चरित्रों के हाव भाव , संवाद , परिवेश को पुनः उत्पन्न करता है , और अतीत में विस्मृत हो गए चरित्र सजीव हो उठते है ।

मेरा मानना है , सम्पूर्ण विश्व में , कालजयी नाट्य "रामलीला " के रूप में पहचाना गया । यदि राम कथा नाट्य रूप में परिवर्तित हो कर दर्शक के समक्ष नहीं आती , तो बाल्मिक और तुलसीदास की रचित रामायण से जनसामान्य परिचित न हो पाता । वेदव्यास की महाभारत , नाट्य रूप में परवर्तित नहीं हुई तो वह जन -जन में सहजतासे व्याप्त नहीं हुई । रामलीला के दर्शक कभी जुटाने नहीं पड़े । चाहे वह तीन घंटे की फीचर फिल्म के रूप में " सम्पूर्ण रामायण " बनकर सामने आयी हो , या फिर टी।वीसीरियल के रूप में ।

बीसवी सदी के जादू , 'फिल्म ' के समानांतर , यदि कोई सबसेबड़ा जादू - शहर , गाँव , कस्बों में चरमसीमा पर व्याप्त रहा , तो वह थी राम लीला ।वृन्दावन, मथुरा से कृष्ण के बाल्यकाल से सम्बंधित कथाओं को लेकर - ' 'रासलीला ' नेभी लोगों के ह्रदय में अपना गहरा स्थान बनाया । यशोदा , कृष्ण के मध्य समाये" वात्सल्य रस " की अनुभूति जब हमें रासलीला में हुई तो हमारा ध्यान सहज हीसूरदास की रचनाओं की तरफ गया ।

" अभिज्ञान- शाकुंतलम " , " विक्रमो-उर्वीशियम "," म्रिक्छ्कतिकम", में उद्धत - तत्कालीन सामजिक परिवेश , पुरुष स्त्री के संबंधो काचित्रण जब नाट्य रूप में सामने आया , तो वह उन रचनाकारों को अमर कर गयी ,जिन्होंने तत्कालीन समाज के चरित्रों का बारीकी से अध्यन करके हमारे सामने रखा ।सामान्य जनमानस में ' कालिदास ' , ' अभिज्ञान शाकुंतलम ' नाट्य से जितने चर्चितहुए , उतने अपने शिल्प की गरिष्ठता से नहीं ।

लेखन की आत्मा उसके " उद्येश्य में ही बसती है । सिर्फ घटनाक्रम को लेकर किया गया सृजन व्यर्थ है । वह 'मनोरंजन ' हो सकता है , ' चिंतन ' नहीं । स्रष्टि के सम्पूर्ण चराचरों में मात्र मनुष्य ही है जिसे - ' चिंतन ' की सौगात मिली है । यदि मनुष्य चिंतन शील नहीं , तो फिर वह स्रष्टि के अन्य जीवों के सदश्य ही सामान्य जीव है और अपनी मनुष्यगत विशिष्टता से वंचित है ।

ऐसे में "कला सिर्फ कला के लिए " है , यह विचार भी व्यर्थ है । कला सदेव आपको चेतना देती है , फिर चाहे वह लेखन कला हो , चित्रकला हो , अथवा संगीत कला । लेखन उस नदी के सामान है जिसमे किसी एक उंचाई पर प्रस्फुटित विचारधारा , अपनेतल से नीचे की ओर , सुखी जमीन की तरफ बहती है । नदी सोदेश्य है । वह ऋतुचक्रका एक प्रमुख अंग है । निरंतरता चाहिए तो नदी को बहना ही होगा । निरंतरताजीवन है - पृकृति है ।

तब नाट्य कला अथवा नाट्य लेखन , सोदेश्य्ता से विलग कैसे रह सकता है ? प्रेम की पराकाष्ठा को प्रकट करता नाटक - " रोमियो- जूलियट ", गन्धर्व विवाह की विसंगतियों पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता नाटक - "अभिज्ञान- शाकुंतलम " , पुरुष की निरंकुशता को प्रदिर्शित करता नाटक - " मृक्छ्कतिकम " , , समाज के बीच से उठाए गए प्रसंग है । बीसवी सदी के मध्य में नौटंकियो के माध्यम से प्रदर्शित किये गए प्रसंग - " राजा हरिश्चंद्र ", " भरथरी चरित्र " , " सावित्री सत्यवान " , लैला- मजनू" , सलीम - अनारकली " , इसी समाज के विभिन्न चित्र है , जिन्हें नाट्य कला के जरिये नाट्यकारों ने जीवितरखा। नाट्य की धारा की निरंतरता बनाए रखने के लिए , उन नाट्य लेखकों तथाकलाकारों को विस्मृत नहीं किया जा सकता , जिन्होंने शहर -शहर , गाँव - गाँव जाकर , नौटंकियो के माध्यम से नाट्य की अलख जगाए रखी ।

बीसवी सदी के मध्य काल तक भारत में राजनेतिक उथल- पुथल की सरगर्मिया रही । ऐसे समय में नाट्य मंच काफी शिथिल हुआ । उसका एक कारण यह भी रहा की जीवित नाट्य का स्थान ' स्वप्निल- अवास्तविक ' नाट्य ने ले लिया । फिल्म विधा ने मंच को काफी शिथिल किया , किन्तु मंच समाप्त नहीं हुआ । धीरे धीरे चरित्र अवास्तविक होते गए । पहले चरित्र एक समूह को चित्रित करते थे , बाद में अनूठे हो गए । बीसवी सदी के अस्सीवे दशक तक हम लोग स्वप्न लोक में विचरण करने के आदी हो गए । चरित्र भव्यता के प्रकाश में विलुप्त हो गए , और कथ्य उद्येश्यहीन ।

यह समय था जब मंच को लेकर लोग पुनः संवेदनशील हुए । इसबीच गंगा के प्रवाह मेंसमय का हाथ थाम कर विभिन्न संस्कृतियाँ कई डुबकियाँ लगा चुकी थी । आज़ादी केबाद पश्चिमी सभ्यता के रंग समाज में तीव्रता से घुलने लगे थे । पारिवारिक ढाँचे , टूटकर केन्द्रित छोटे परिवारों के स्वरुप में बदल गए थे । स्त्री , पुरुष के संबंधों में तल्खीआने लगी , स्त्रियाँ परम्पराओं की जंजीरों से मुक्त होकर , स्वच्छ आकाश की तलाश मेंजुट गयी । और तब निस्संदेह रचनाकारों के विषय भी केन्द्रित होने लगे । घटनाक्रमोंके स्थान पर , नाट्य में , विचार , चिंतन , वातावरण के रंग उभरने लगे ।

यह नाट्य केकरवट बदलने और आधुनिक समाज से जुड़ने का समय था । यह उसके उत्कर्ष कासमय था , जब नाट्यकार मनोदशाओं को जीवंत करने को महत्त्व देने लगे - किन्तु यहीसमय था जब नाटकों के दर्शक भी सिमटने लगे । प्रेक्षाग्रहों में बुद्धिजीवियों काजमावड़ा होने लगा और विचार धारा किसी नदी का प्रवाह ना रह कर , समान तलो पररुकी हुई स्थिर जल बन गयी ।

इस विकास क्रम में रामलीला के मंच विलोपित होने लगे ।उनके पात्र अवास्तविक , अभिनय तीव्र , और वेशभूषा विचित्र नज़र आने लगी । नौटंकियों का संगीत कर्कश , परदे के विंग भोंडे , और नाट्य के कथ्य अप्रासंगिक दिखने लगे । नौटंकियों की परम्परागत अभिनेत्री , 'बाई जी ' अपनी जीविका को " केबरे ' में तलाशने लगी , और 'बार' में उन्होंने अपना नया मंच तलाश लिया । समाज से उभरे , सामान्य दर्शक , " हीरामन " ने अपनी कलाकार " बाई जी " को खो दिया ।

दर्शकों के नए समूह ने , नाट्य को अभिजात्य वर्ग का मनोरंजन बना दिया । वे नाट्य में प्रकाश के रंग , पार्स्व संगीत के माधुर्य , और कलाकारों में सूक्ष्म अभिनय के तत्व ढूँढने लगे ।नाट्य एक व्यवस्थित तंत्र हो गया । नाट्य स्कूल आगे आये, कुछ महानगरों में वातानुकूलित प्रेक्षा गृह बने , और नाट्य कर्मियों के बीच , नाट्य कर्म , प्रगतिशील, प्रयत्नशील , विगातशील जैसे मुद्दों में बँट गया । धीरे धीरे नाट्यकारों के अपने वर्ग बन गए । कई नाट्य कार मठाधीशों की तरह पूजे जाने लगे , कुछ आलोचकों के खेमों में खड़े हो गए , और नाटक सिर्फ नाटक के लिए ही शेष रह गया ।

पिछले दो दशकों में कई नाट्य लेखक सामने आये । रेडियो नाटकों में मात्र ध्वनि प्रभाव से , बिना द्रश्य के , प्रभावी कथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया । सड़कों पर बिना किसी भव्य सेट के , जन नाट्यों के नाम पर ' नुक्कड़ नाटक हुए । स्कूलों के वार्सिकोत्सवों में बच्चों ने अपने हाव भावों से लोगों को लुभाया , लोक कथाओं , लोक संस्कृतियों से विचार उधार लेकर , लोक नाट्य लिखे गए, खेले गए , किन्तु भरपूर दर्शक कही नहीं दिखे । इन सभी प्रदर्शनों में सहज उपलब्ध दर्शक ' हीरामन " अनुपस्थित ही पाया गया ।

तब प्रश्न है की इन नाट्य लेखनो में किस बात का अभाव था जो यह सामान्य जन को नहीं लुभा पाया । निश्चित ही ' सोदेश्यता ' का । नाट्य लेखक अपनी अनुभूतियों पर नाटक लिख कर , अपने नाट्य धर्म से मुक्त हो गए , उन्होंने दर्शकों का विचार नहीं किया । दर्शक मुठ्ठीभर बुद्धि जीवी , मुठ्ठीभर अभिजात्य वर्ग , मुठ्ठीभर कलाकार नहींहै , । दर्शक तो वह वर्ग है जो भीड़ में खड़ा रह कर , अपनी बात , अपनी अनुभूति ,साक्षात देखना चाहता है । वह विशद है और उसके समूह भी विशद है ।

निश्चित ही नाट्य तो सामजिक समूहों के लिए है , ना की अपनी जैसी मनः स्थितियों वालों के मन बहलाने के लिए। शरत चन्द्र ने जब बंगाल की स्त्रियों की दशा व्यक्त करने के लिए कलम उठाई तो , हर गाँव हर गली में वैसी कई स्त्रियाँ हमें खड़ी दिखाई दी । मुंशीप्रेमचंद की हर कथा का अपना अलग रंग था , किन्तु वातावरण और पात्र समाज कीबृहत भीड़ में ही खड़े थे । आज के नाटकों के पात्र हमें तलाशने पड़ते है की वे भीड़ केकिस कोने में छिपे है ।

व्यवसाय के इस दौर में जब मानवीय त्रासदी की कई घटनाएं , मात्र चटपटा समाचार बन कर रह जाती है , तब कितने लेखक उससे अभिभूत होकर शरत की तरह विलखउठते है ? क्या आज लेखन कर्म सिर्फ प्रतिष्ठा प्राप्त करने का उपाय है ? क्या लेखन कीसार्थकता आज भी बची है । क्या पिछले पचास वर्षों में हमारा समाज बदल गया है ? क्या समाज में ऐसी कोई कुरीति शेष नहीं बची है , जो करुणा जनक हो ? क्या नारियां संताप - शोषण से मुक्त हो गयी है ?

इनके उत्तर कहीं और नहीं , मात्र रचनाकारों की 'कलम में छिपे हुए है ।शरत चन्द्र ने कहा था - " कुछ लोग कहा करते है , कि वास्तविक प्लाट नहीं मिलते इस लिए नहीं लिखते । मै अवाक रह जाता हूँ ! , इतनी विशाल धरती पड़ी है , इतनी विचित्रता है , और ये ' वास्तविक ' प्लाट नहीं ढूँढ पाते !!इसका कारण है की वे समाज में घुस कर मानवता नहीं खोजते , अपनी कथा को लेकर ही व्यग्र रहते है । "

शायद , किसी भी रचनाकार के लियें इससे आगे कुछ भी कहने के लिए शेष नहीं बचता । नाट्य लेखन हो या साहित्य रचना , लेखन की सोदेश्यता ही उसके प्राण है । और सोदेश्यता, आत्मा की तरह समाज के बीच में ही निवास करती है , जिसे हम सबको तलाशना ही होगा ।

_____ सभाजीत शर्मा 'सौरभ '

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