मंगलवार, 17 जनवरी 2012

आज़ादी के मायने

AAzadi ke Maayne ..!!

६३ वर्ष पहले , जब १५ अगस्त १९४७ के दिन एकीकृत भारत का एक राष्ट्र के रूप में जन्म हुआ, तब परतंत्रता से स्वतंत्रता का नया चोला पहनते हुए हमें यह स्पष्ट नहीं था कि इस स्वतंत्रता का अर्थ और मकसद क्या है यदि स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ ' स्व - तंत्र ' से ही था , तो कुछ हद तक मकसद कामयाब है , क्यूंकि आज जो कुछ है , वह स्व- तंत्र ही है यह बात दीगर है कि यह स्व-तंत्र किस का है , किसके द्वरा संचालित है , किसके फायदे के लिए है , और इस तंत्र के अहम् घटक कौन है




६३ वर्ष में हम अपने राष्ट्र के लिए एक सर्वमान्य भाषा नहीं दे सके , तब आचार विचार के आदान प्रदान की बात तो बहुत दूर है देश को संस्कृतियों के आधार पर कई भागों में बाँट कर हम घमंड से कहते रहे की हम सब एक है । क्षेत्रवाद , जतिबाद को हम नए नए आरक्षण देकर , नए प्रदेश बनाकर , राजनैतिक लूट की नयी, नयी राहे खोजते रहे प्रतिभाओं का सम्मान करना हमने छोड़ दिया और इसीलिए प्रतिभाएं हमारे बीच से पलायन कर गई






सरकार का अर्थ हो गया , विभिन्न व्यवसाय करनेवाली एक ऐसी संस्था , जिसके पास असीमित अधिकार हों। मूलभूत आवश्यकताओं , जैसे पानी, आवागमन , विद्युत्, अन्न , उर्जा, शिक्षा के अंतिम छोर को सरकार ने थाम लिया जनता मूलतः दो भागों में बंट गयी - अमीर और गरीब हर गरीब का लक्ष्य सिर्फ यह रह गया की वह अमीर कैसे बने इन दो तबकों के बीच में एक और वर्ग तिरंगे के सफ़ेद रंग की तरह सेंडविच बना रहा , और वह था-' मध्यम वर्ग ' । इस मध्यम वर्ग पर ही महगाई का चक्र लगातार अपना असर दिखता रहा , और वह इसे काटता ही रहा






प्रजातंत्र के चार स्तम्भ , असमतल जमीन पर प्रजातंत्र के शामयाने को टाँगे रहने का प्रयास करते रहे विधायिका, न्यायपालिका , कार्यपालिका, और मीडिया ( माध्यम ) एक दूसरे का हाथ थाम कर आगे अग्रसर होने के बजाय एक दूसरे को पकड़ने , खींचने का कार्य करने लगे इसका असर यह हुआ की प्रजातंत्र का शामयाना हजारों जगह से फट गया और उसकी छाया में बैठी जनता पर , धूल, पानी, ओले , बरसात वगैरह लगातार बरसते रहे





मेंने सन १९५० में आज़ाद भारत में जन्म लिया और आज ६० वर्ष का हूँ अपनी जीवनयात्रा में भारत में होने वाले बदलाव लगातार देखे , और आज सिर्फ निराश हूँ बल्कि , छुब्ध हूँ ।मेरा मानना है की राष्ट्र निर्माण का महानतम कार्य मीडिया के कन्धों पर ही था यह मीडिया पहले फिल्मों के माध्यम से नयी पीढ़ियों को सन्देश देता रहा और बाद में छोटे परदे , और की टी.वी ने इसकी बागडौर सम्हाल ली दशक तक सर्वशक्तिमान फिल्म माध्यम ने युवाओं को क्या दिया हिंसा, सेक्स और प्रतिशोध का सन्देश ? और जब यही बागडौर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के हाथों में आयी तो हमें क्या मिला ? मनोरंजन के नाम पर परिवार की प्रथम इकाई स्त्री चरित्रों के घ्रनास्पद कृतिम स्वरूपों का प्रदर्शन ? स्वाभाविक चुटीले हास्य के विपरीत फूहड़ हास्य पर आधारित कार्यक्रम , और कृतिम हंसी से चीखते चिल्लाते लाफ्टर एंकर ? बच्चों से लेकर युवाओं तक एक ही नृत्य स्वरुप की नक़ल करते नृत्यों के कार्यक्रम आज़ाद भारत में ऐसा लगता है कि सिर्फ मनोरंजन ही मनोरंजन चारों और है , चाहे वो धरावाहिक के जरिये हों या फिर खेलों के आडम्बरी प्रदर्शन के जरिये
सत्ता और राजनिति के कुत्सित स्वरूपों का सच दिखाने की होड़ में प्रथम सूचना दाता का दंभ भरती हुई २४ घंटों की न्यूज़ चैनल में राजनेतिक पार्टियों के दिशाहीन नेता कुछ ख़ास शब्दों की जुगाली करते है - ' फिरका परस्त ' , 'सेकुलर' , ' धर्म निर्पेक्छ्ता ', को ताकतों की संज्ञा देते हुए ये लोग चार वाक्य कहते है , और न्यूज़ तैयार हो जाती है जातियों को आधार बना कर , उनकी संवेदनाओं पर अपना शीश महल खड़ा करने वाले ये रास्ट्र के कर्णधार न्यूज़ हीरो की तरह हर दिन दिख्ते है बाकी कुछ चेनल न्यूज़ के नाम जनता को , प्रथ्वी के अचानक नष्ट होने जैसी अजीबोगरीब भविष्यवाणियों से सराबोर करती रहती है इनके कार्यक्रमोंh में एलियन नए खलनायक है , पौराणिक कथाओं के पात्र फिर जन्म ले रहे है , देवताओं के चमत्कार है , और ब्रम्हांड का वह ज्ञान है , जिसे सिर्फ एक थ्योरी ही कहा जा सकता है बची खुची कमी अपराध - घटनाओं को नाट्य रूपांतर करके दिखाकर पूरी हो जाती है अन्य समय ' शाहरुख़ ', आमिर सलमान के खान युद्ध में अथवा विपाशा, करीना , कैट , के सरताज होने की बातों में गुज़र जाता है
कमोबेश सभी न्यूज़ चेनल भी टी: आर : पी: की बैसाखियों परटिकी है और फिर वही प्रश्न है - " आजाद भारत में क्या सभीc और " मनोरंजन ही मनोरंजन है ? जिसका प्रदर्शन पहले बड़ा पर्दा करता रहा और अब छोटे परदे पर भी वही सब कुछ है मेरे अर्थ में भारत में बहुत कुछ है अभी और कहने और करने को

भारत की स्वतंत्रता का प्रथम अर्थ है - ' अभिव्यक्ति ' की स्वतंत्रता यह एक सुखद बात है किं भारत में आजादी के बाद पुस्तकों पर' 'बेन ' नहीं लगता धार्मिक बिन्दुओं पर उदारवादी विचार सामने आते है विभिन्न विषयों पर लोग अपने विचार लेखों के माध्यम से व्यक्त करते है किन्तु इन सबका मंच कहाँ है ? या तो अखबारों के दो पन्ने , या फिर काफी हाउस , या ट्रेन का सफ़र , या फिर' ब्लोग्स' जरा देखें की सबसे शशक्त कहे जाने वाले एलोक्टोनिक मीडिया में इनकी जगह कहाँ है ? अभिव्यक्ति के लिए तकनीकी सस्ती हो चुकी है डाकुमेंटरी भी कोई भी बना सकता है , किन्तु उसका मंच कहाँ है ?
समाज का सच उन्ही के पास है जो समाज के बीच फंसे है -किसी संस्था या न्यूज़ चेनल के पास नहीं और सच से अधिक आकर्षक कोई भी कार्यक्रम नहीं हो सकता जिसकी टी : आर : पी: आज नहीं तो कल सिर्फ उसी चेनल को मिलेगी , जो दर्शकों की सह भागिता को आधार बनाएगा शायद तब स्वतंत्र भारत का एक नया रूप भी दिखेगा , जिसमे मीडिया का अपना शानदार रंग होगा

---सभाजीत शर्मा ' सौरभ'

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