द्रष्टि...,!!
भटकाती रही ,
कभी इधर तो कभी उधर ॥,
गली गली , डगर डगर ,
गाँव गाँव , शहर शहर ॥!!
रात आई , ओढ़ कर काला वसन ,
चमचमाते, झिलमिलाते ,
चांदी के बटन टंके जैसे ,
चन्दा सितारे,
पार दर्शी गाउन में , द्रष्टि ने ढूंडा बहुत ,
न दिखा पर
'रजनी' का तन...!!
गोल चाँद पीला सा ,
शर्मा कर घूँघट हटा ।!,
ब्योम के आंगन में ,
खुद को , निरापद - सूना पा ,
लाज हया छोड़ .. ,
खूब इठलाया - इतराया ,
द्रष्टि ने ढूंडा मगर ,
नहीं थी मादक गर्मी ॥,
रूप में था ..केवल ,
बर्फ सा धवल धवल ...,
ठंडापन॥!
इधर उधर आवारा घूमते ,
कलियों के मुख को ,
बल पूर्वक चूमते ,
प्रणय के प्रतीक भौरों में ॥,
द्रष्टि ने खोजा बहुत
पर ,
न दिखा ॥,
जीवन का आजीवन ,
मधुर 'गट्ठ - बंधन' ।!!!
खुद को समर्पित कर ,
सब कुछ अर्पित कर ,
ड्योढ़ी पर मंदिर के ,
पूजी कई मूर्तियाँ,
छवि निहार बार बार ,
अपना यह ह्रदय हार ,
छुआ जब उन्हें मेने ,
था कठोर पत्थर ही वह ,
न था उसमें
जीवन का स्पंदन ॥!!
----- ' सभाजीत '
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