शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

जो नहीं था .....!
जिंदगी भर,...
वही बनने कि कोशिश करता रहा... 'मैं'.!

और जो था
'सहज -सामान्य' ..,
वह बने रहने को
मेरा मन कभी नहीं माना.

एक जिद्दी .. बच्चे की तरह..,
'चाँद' मांगता रहा ..मैं
अपने आँगन में टांगने के लिए,
जबकि
मेरा आँगन तो'
उसी दुनिया के आँगन का एक 'टुकड़ा' था,...
जहा टंगा था चाँद,..
आसमान में
पीढ़ी दर पीढ़ी से,

' किताबों ' के ढेर में.. 'डूब' कर,
मैंने पढ़ा... कि,
'इंसान' ही 'भगवान' है,
क्योकि 'भगवान' की सूरत भी,
गढ़ी है दुनिया ने...,
इंसान की ही तरह.....,
इंसान को पूजने के लिए...!!
,और .....,

'इंसान'
अगर चाहे तो ,..
कर सकता है ' छेद'... आसमान में ,
'उबाल ' सकता है ...'समुद्र',
अपनी 'साँसों' से ,
'नाप' सकता है 'ब्योम',
तीन डगों में,....

लेकिन ..इंसान का यह 'रूप',
'एक- बचन' है कि 'बहु- बचन',
यह नहीं लिखा गया ...,
किताबों में,

जब मैंने जाना कि ,
इंसान एक 'शख्श ' का नाम नहीं,
वह तो 'निरंतर बहती'
किसी 'धारा' का नाम है,
'धारा.'.....
जो खपती है ,
अपने किनारों पर बनी 'चट्टानों में ...,
'हजारो हज़ार साल घिसते हुए,
समय के' कठोर बलशाली' हाथों में,
एक 'जीवन रेखा' खोदने के लिए.....,

और 'जीवन रेखा',..
एक 'बिंदु' तो होती नहीं,
वह तो होती है उम्र का एक 'दस्तावेज़',
जिसे लिखने में,
'इतिहास' के कई पेज
बदल कर पीले हो जाते है..,

तो...,
'टटोला' खुद को,

'गीली मिटटी' कि तरह
जो कुछ था
उससे 'बदला' नहीं था मैं

'बढ़ा' नहीं तो 'घटा' भी नहीं था मैं

किसी भी रास्ते पर....,
... ' झंडों ' कि तरह लहरा कर ,
चला ही नहीं था मैं,

किसी भी 'रूप' में'ढला' ही नहीं था मैं

'आग' में रहकर भी
'जला' ही नहीं था 'मैं'.....,

' गोल - घेरे' में
प्रगति के नाम पर
कोल्हू के बैल कि तरह
चला ही नहीं था 'मैं'....,,

'युगों- युगों' से वैसा ही था
'शास्वत रूप' में,

बहुत बड़ी 'बात' थी कि
'जिंदा' था,
'मरा' नहीं था 'मैं'......!

.......सभाजीत









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